एक कमरे में दो शख्स आपस में बात कर रहे हैं। सफेद कपड़ों में बैठा व्यक्ति डरा हुआ लग रहा है। उसे डर था आने वाली सुबह का, वो डरा हुआ था कोर्ट में आये फैसले से। उसने अपने साथ वाले व्यक्ति से पूछा- क्या सीबीआई सच में उसको जेल भेज सकता है? उस व्यक्ति ने हां में जवाब दिया। कितने समय के लिए? अगला सवाल फिर आया। जवाब आया-शायद 6 महीने के लिए। उसके बाद एक उदासी भरा वाक्य कमरे में गूंजा। सही ही है, शायद मुझे जनता की थोड़ी-बहुत सहानुभूति मिल जायेगी।
24 जुलाई, 1997
पटना हाइकोर्ट में वकीलों और मीडिया की अच्छी-खासी भीड़ थी। उस दिन बिहार के मुख्यमंत्री पर फैसला होना था। सबको लग रहा था कि इस बार भी चतुर नेता फिर चूहे-बिल्ली का खेल ही खेलेंगे। लेकिन पटना हाईकोर्ट ने उस अर्जी को खारिज कर दिया। मतलब मुख्यमंत्री को अब जेल जाना था।
मुख्यमंत्री जो राज्य को अपना शासन समझता था, नेता जो सबका चहेता था,जिसने चतुराई अपने गुरू चन्द्रशेखर से सीखी थी। ये बिहार के चतुर नेता लालू प्रसाद यादव के चारे घोटाले का किस्सा है। जिसमें हार के बाद भी शासन उनका ही बना रहा।
गुजराल उस समय देश के प्रधानमंत्री थे और लालू उनके चहेते माने जाते थे। जब गुजराल लालू प्रसाद को बचाने की कोशिश करने लगे तो उनको आदेश मिला कि ऐसा किया तो सरकार गिर सकती है। सरकारी बंगला, 1 अणे मार्ग जो लोगों के जमावड़े से भरा रहता था। वहां उस दिन उदासी और निराशा पसरी हुई थी। घर पर बार-बार फोन बजता और लालू उसे उठाकर गुस्से में पटक देते। राबड़ी देवी और बेटे अपने कमरे में रो रहे थे। सिर्फ बड़ी बेटी मींसा गांधी अपने पर नियंत्रण रखी थी और चुप थी।
वहीं दूसरी ओर पटना उच्च न्यायालय के बाद से कानूनी प्रक्रिया तेज होने लगी। डेढ़ साल की पूरी मेहनत के बाद लालू प्रसाद यादव के खिलाफ वारंट मिला था। उपेन्द्र नाथ बिस्वास लालू प्रसाद की गिरफ्तारी में देरी नहीं करना चाहते थे। उपेन्द्रनाथ सीबीआई निदेशक और चारा घोटाले के जांचकर्ता थे। उपेन्द्र नाथ को डर था कि लालू की गिरफ्तारी से राज्य में दंगे भड़क सकते हैं, खून खराबा हो सकता है। इसलिए पश्चिम बिहार के उस बंगले को चारों तरफ से रैपिड एक्शन फोर्स ने घेर लिया। जहां बिहार के मुख्यमंत्री और राज्यपाल रहते थे।
लालू यादव के बंगले से थोड़ी दूर पर भारतीय जनता पार्टी का कार्यालय था। जहां बीजेपी कार्यकर्ता और समर्थक इस फैसले से जश्न मना रहे थे, मिठाई बांट रहे थे। बीजेपी नेताओं को लगने लगा कि लालू यादव का युग समाप्त हो गया है। सुशील मोदी उस फैसले को याद करते हुए बताते हैं
‘‘लालू यादव बहुत चतुर राजनीतिज्ञ है लेकिन उस शाम मुझे लगा था कि सारे रास्ते बंद हो चुके थे।”
लालू प्रसाद यादव अपना आखिरी जोर लगा रहे थे। उन्होंने दिल्ली प्रधानमंत्री गुजराल को फोन लगाया। गुजराल से लालू यादव की बात नहीं हो पाई। लेकिन एक संदेश आया, राज्यपाल ए. आर. किदवई के पास। संदेश में साफ था कि लालू यादव का वारंट आ चुका है। उनका इस्तीफा दिलवाओ या बरखास्त करो।
जांचकर्ता उपेन्द्रनाथ विस्वास के लिए वो शाम बड़ी ही अधीर थी। अगले दिन वे राज्य के सबसे बड़े नेता और मुख्यमंत्री को गिरफ्तार करने वाले थे। उपेन्द्रनाथ मुख्यमंत्री आवास के पास कोल इंडिया गेस्ट हाऊस में रूके हुये थे। उस दिन को याद करते हुए उपेन्द्र बताते हैं ‘‘उस समय मैं बहुत उत्साहित था और बैचेन भी। मैं जानता था लालू यादव चतुर राजनेता हैं। मैं उन सभी खामियों के बारे में सोच रहा था जिनका फायदा उठाकर लालू यादव सीबीआई के शिकंजे से बच सकते हैं।’’
रात 10 बजे लालू यादव अपने बंगले पर अपने साथियों के साथ बैठे थे। निराश और उदास होकर सीढ़ियों से अपने कमरे में जाने लगे। जहां उनकी पत्नी राबड़ी देवी रो रहीं थीं। लालू यादव को अब एक कठिन निर्णय लेना था। सीढ़ी चढ़ते हुये लालू प्रसाद ने निर्णय ले लिया था। अपने कमरे में जाकर अपनी पत्नी को आदेश सुना दिया।
कल तुमको सीएम पद की शपथ लेना है, तैयारी शुरू करो।
लालू यादव के संयुक्त मोर्चे ने उनका साथ देने से मना कर दिया था। अब राबड़ी देवी का मुख्यमंत्री बनना मुश्किल लग रहा था। लालू ने अपना दूसरा दांव चला। दिल्ली में बैठे कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी को फोन लगाकर। केसरी उस समय फोन पर नहीं आये। लालू ने अपने विश्वसनीय राधानंद झा को एक संदेश लेकर दिल्ली भेजा। लालू प्रसाद यादव अब समर्पण करने को तैयार थे लेकिन सत्ता छोड़ने को नहीं।
25 जुलाई 1997
उपेन्द्र नाथ बिस्वास अपनी पूरी तैयारी के साथ लालू यादव को गिरफ्तार करने जा रहे थे। तभी उनके पास एक फोन आता है। उन्हें संदेश मिलता है लालू यादव खुद आत्म समर्पण करने आ रहे हैं। बस उन्होंने इंतजाम करने के लिए थोड़ा समय मांगा है। लालू यादव विधानमंडल जाते हैं और सभी मंत्रियों के सामने इस्तीफे की घोषणा कर देते हैं।
‘‘आप लोगों को नया नेता चुनना है, चुन लीजिए।’’
इतना बोलकर लालू मीटिंग छोड़कर चले जाते हैं। थोड़ी देर बाद राबड़ी देवी पहुंचती हैं। साथ में भाई साधु यादव और अनवर अहमद भी आते हैं। नेता के चुनने की प्रक्रिया शुरू होती है। ऊर्जा मंत्री श्याम रजक एक नाम का प्रस्ताव पेश करते है और पूरे हाॅल में नारा गूंजने लगता है- ‘लालू यादव जिंदाबाद! राबड़ी देवी जिंदाबाद!
बाद में सबने लालू यादव के इस फैसले पर नैतिकता और वंशवाद की स्याही छिड़कनी चाही। लालू बेखटक जवाब देते, कैसा वंशवाद! मैंने अपनी सत्ता बचाई है। अगर राजनैतिक विरोधी को सत्ता न देना अनैतिकता है तो मैं ऐसी नैतिकता करता रहूंगा।
ये किस्सा संकर्षण ठाकुर की किताब बिहारी बंधु के आधार पर लिखा गया है।
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