जिस गीत को सुनकर हम अपने आप ही खड़े हो जाते हैं और जिसके नीचे खड़े होना गर्व महसूस होता है वो है हमारा राष्ट्रगान। उस जन गण मन को हम बचपन से गाते आ रहे हैं। लेकिन वो जन गण मन ऐसे ही राष्ट्रगान नहीं बन गया था। उसको बनने मे कई दिक्कतें आईं थीं और कुछ लोगों के विरोध का भी सामना करना पड़ा था। जिनका मानना था कि देश की आजादी में हमारा गीत वंदेमातरम रहा है तो आजाद भारत में हमारा राष्ट्रगान वंदेमातरम की जगह जन गण मन क्यों?
इस सवाल को लेने से पहले जन गण मन के बारे में बात कर लेते हैं। जन गण मन सबसे पहले साल 1911 में कलकत्ता अधिवेशन में गाया था। जन गण मन को रविन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा था। उन्होंने लिखते वक्त ये नहीं सोचा था कि ये गीत आगे चलकर देश का राष्ट्रगान बनेगा। उन्होंने तो इसे तत्वबोधिनी पत्रिका में ‘भाग्य विधाता’ के नाम से प्रकाशित करवाया था। 27 दिसंबर 1911 को कलकत्ता अधिवेशन में जॉर्ज पंचम की उपस्थिती में इसे पहली बार गाया गया था। उसके बाद आजाद होने के बाद भारत ने अपना झंडा तो चुन लिया था लेकिन राष्ट्रगान नहीं चुना था, जिसकी वजह से कई परेशानियां आ रहीं थीं क्योंकि राष्ट्रगान को हर बड़े प्रोटोकाॅल के समय गाया जाना था।
इस बारे में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 21 मई 1948 को कैबिनेट को इस बारे में एक नोट लिखा। ये नोट जो जन गण मन को राष्ट्रगान बनाने की पूरी कहानी है-
‘‘हमने भारत का राष्ट्रध्वज और अधिकारिक चिह्न तय कर लिया है। हमें जल्द ही अपना राष्ट्रगान भी तय करना होगा। इस मामले में जल्दबाजी करना थोड़ा कठिन है लेकिन कुछ फौरी इंतजाम जल्द से जल्द करने होंगे क्योंकि रोज ही अधिकारिक अवसर आते हैं जब राष्ट्रगान को बजाया जाना जरूरी हो जाता है। यह ऐसा मामला नहीं है जो भारत में ही असर डालता है। विदेश में हमारे दूतावासों और प्रतिनिधि मंडलों को खास मौकों पर राष्टगान बजाना होता है। विदेशी अथाॅरिटीज को भी खास मौकों पर हमारा राष्टगान बजाना होता है। ये सब जानना चाहते हैं कि इस मामले में क्या करना है?
इसलिए यह जरूरी हो गया है कि फौरी तौर पर एक राष्ट्रगान तय कर लिया जाए जो भारत और विदेश में भी सभी मौकों पर बजाया जा सके। इसको पूरी जांच-पड़ताल के बाद अंतिम रूप दिया जा सकता है। यह भी हो सकता है कि बाद में एकदम नई धुन और नए शब्द खोज लिए जाएं। हालांकि इसकी गुंजाइश कम ही है फिर भी हम इस संभावना को सिरे से खारिज नहीं कर सकते।
जन गण मन ही क्यों?
जवाहर लाल नेहरू ने आगे लिखा:
इस समय हमारे पास ‘जन गण मन’ और ‘वंदे मातरम’ दो विकल्प हैं। आजकल सेना के बैंड भारत और विदेश दोनों जगह अधिकारिक अवसरों पर काफी हद तक ‘जन गण मन’ ही बजा रहे हैं। मैंने विभिन्न प्रांतों के गर्वनरों से बात की और उनसे कहा कि वे अपने मुख्यमंत्रियों से इस बारे में सलाह-मशविरा करें। उन सब ने आम राय से ‘जन गण मन’ को समर्थन दिया है। इसमें से एकमात्र अपवाद सेंटल प्रोविंस के गर्वनर हैं। जाहिर है कि सवाल किसी व्यक्ति की निजी राय का नहीं, सामान्य तौर पर स्वीकृति का है। इसमें भी यही दिखाई देता है कि आम तौर पर ‘जन गण मन’ ही बजाया जा रहा है।
निश्चित तौर पर वंदेमातरम एक लोकप्रिय गीत है और हमारी आजादी की लड़ाई से इसका गहरा रिश्ता है। इसलिए यह एक पसंदीदा राष्ट्रीय गीत के तौर पर बना रहेगा, जो हमारी स्मृतियों को जागृत रखेगा। निश्चित तौर पर राष्ट्रगान शब्दों का ही एक रूप है लेकिन उससे भी बढ़कर यह कहीं एक धुन या म्यूजिकल स्कोर है। इसे ऑर्केस्ट्रा और बैंड अक्सर बजाया करते हैं और कम ही मौकों पर इसे गाया जाता है इसलिए संगीत राष्ट्रगान का सबसे जरूरी हिस्सा है। यह जीवन और गरिमा से भरपूर होना चाहिए। इसे इस तरह का होना चाहिए कि छोटे या बड़े आर्केस्टा और सेना के बैंड्स और पाइप्स, इसे बढिया ढंग से बजा सकें। इसे सिर्फ भारत में ही नहीं बजाया जाना है बल्कि, बाहर भी बजाया जाना है। इसलिए इस तरह का हो कि दोनों जगह इसे सराहा जा सके। ‘जन गण मन’ इन सारी कसौटियों पर खरा उतरता दिखाई देता है। पिछले कुछ महीनों में भारत और विदेशों में इसे बजाया भी गया है। हालांकि इसके मानक संस्करण हमारे पास नहीं हैं। लेकिन ऑल इंडिया रेडियों ने इसका प्रसारण किया है। जो शायद अच्छा संस्करण है।
जरूरी बातें
इस नोट में जवाहर लाल नेहरू उन बातों पर ध्यान देने को कहते जो बहुत जरूरी हैं। नेहरू लिखते हैं-
‘इस बारे में भी निर्देश दिया जाना जरूरी है कि किन उचित अवसरों पर राष्ट्रगान बजाया जाना है। इस मामले में कोई बाध्यता नहीं हो सकती, लेकिन अधिकारिक सलाह का अनुसरण किया जाना चाहिए। जैसा कि मुझे लगता है कि सिनेमा के शो के बाद राष्ट्रगान बजाना गैर-जरूरी है। इस मौके पर लोग जाने की तैयारी में होते हैं और राष्ट्रगान को उचित सम्मान नहीं दे पाते। ऐसा करने से राष्टगान की गरिमा बढ़ेगी, इसे बहुत हल्का नहीं बनाया जाना चाहिए। मैं इस सलाह से सहमत हूं कि फिल्म खत्म होने के बाद राष्ट्रध्वज दिखा दिया जाए।’
जवाहर लाल नेहरू के इस नोट ने जन गण मन को राष्ट्रगान बनाने में बड़ी अहम भूमिका निभायी। इसके बाद भी राष्ट्रगान पर चर्चा होती रही और 24 जनवरी 1950 को जन गण मन को राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार लिया गया।
ये पूरा नोट पीयूष बबेले की किताब ‘नेहरू मिथक और सत्य’ में दिया गया है।
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