साल 1952
रायबरेली की चिलचिलाती धूप में एक तांगा धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है। उसमें एक महिला अपने पति के लिये वोट मांग रही है। वो तांगे से उतरती है और लोगों से मुस्कुराकर वोट देनी की अपील करती है। महिला का सिर पल्लू से ढंका हुआ है। ये महिला इंदिरा गांधी थी जो अपने पति फिरोज गांधी के लिये चुनाव प्रचार कर रहीं थीं। फिरोज-इंदिरा अब सियासत के गलियारे में आ गए थे। यही सियासत दोनों को एक-दूसरे का विरोधी बनाने वाली थी। यही सियासत इंदिरा गांधी से ऐसा फैसला करवाने वाली थी जो उनके और फिरोज के बीच कलह की वजह बनने वाली थी।
इंदिरा लखनऊ से नई दिल्ली आकर रहने लगी थीं। शुरूआत में इंदिरा तीन मूर्ति भवन को घर बनाने में लग गईं। वे भोजन की व्यवस्था करतीं और कार्यक्रमों का आयोजन करवाती। वे अपने पिता की कुशल प्रबंधक बन गईं। जवाहर लाल नेहरू विदेश जाते तो साथ इंदिरा भी होतीं। उनको दिल्ली की जिंदगी अच्छी लगने लगी थी। तीन मूर्ति के बारे में इंदिरा गांधी ने लिखा-
‘‘ऐसे लंबे-चौड़े कमरे, दूर तक जाते गलियारे! क्या इनको कभी रहने लायक बनाया जा सकता था? क्या इनमें घर जैसा महसूस किया जा सकता था? यदि किसी को कोई काम करना हो तो बेहतर है कि उसे बढ़िया ढंग से करे, इसलिए मैं उसी में रम गई।’’
1952 में वे राजनीति में तो आईं लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से। उन्होंने फूलपुर में अपने पिता के लिए प्रचार किया और रायबरेली में अपने पति के लिये। उनके इस हुनर से जवाहर लाल नेहरू काफी प्रभावित हुये। उनको कभी नहीं लगा था कि उनकी बेटी राजनीति में आने की इच्छा रखती है। लेकिन अभी वे प्रचार में व्यस्त थीं। 1952 में उन्होंने अपने पति को जिताने के लिए जबरदस्त चुनाव प्रचार किया। फिरोज चुनाव जीतकर ससंद पहुंच गये। यहां से फिरोज में एक बड़ा बदलाव आया। हमेशा पीछे बैठने वाला फिरोज संसद में पहुंचकर तेजतर्रार हो गया। वे नेहरू खेमे में वामपंथी थे वैसे ही जैसे 1940 के दौर में जवाहर लाल नेहरू थे।
1955 में फिरोज गांधी ने जीवन बीमा कारोबार में अवैध सौदों का खुलासा किया और सरकार को उसका राष्ट्रियकरण करने पर मजबूर कर दिया। वे संसद में जितने मुखर थे दिल्ली के घर में उनको उतनी ही घुटन होती थी। उनको प्रधानमंत्री का दामाद कहलवाना पसंद नहीं था। फिरोज की सफलता के कारण इंदिरा-फिरोज में प्रतिस्पर्धा होने लगी और दोनों के रिश्ते बिगड़ते गये। एक तरफ संसद में फिरोज का कद बढ़ रहा था तो इंदिरा गांधी भी राजनीति में सक्रिय हो गई थीं। 1955 में इंदिरा गांधी कांग्रेस कार्यसमिति की सदस्य बन गईं। एक साल बाद उनको उसी कांग्रेस समिति का अध्यक्ष चुन लिया गया। धीरे-धीरे उनका कद बढ़ता ही जा रहा था। 1958 में वे केन्द्रीय संसदीय बोर्ड की अध्यक्ष बन गईं।
जो लोग कहते हैं कि इंदिरा के राजनीति में आने से पंडित नेहरू की भूमिका थी या वे इस फैसले से खुश थे, उनको ये बात ध्यान से सुननी चाहिये कि जवाहर लाल नेहरू वंशवाद के विरोधी थे। उन्होंने कभी इंदिरा से नहीं कहा कि तुम राजनीति में आओ। जीबी पंत के जोर देने पर इंदिरा गांधी 1959 में कांग्रेस की अध्यक्ष बन गईं। तब जवाहर लाल का कहना था-
‘सामान्यतः यह ठीक नहीं है कि मेरे प्रधानमंत्री रहते मेरी पुत्री कांग्रेस अध्यक्ष बन जाए।’
इंदिरा गांधी के राजनैतिक उफान से पति-पत्नी बहुत दूर हो गये थे। अब वे एक-दूसरे के विरोधी हो गये थे। अध्यक्ष के रूप में इंदिरा गांधी का कार्यकाल असरदार रहा। भाषाई आधार पर राज्य बंट रहे थे। हालांकि नेहरू उसके विरोध में थे। बाॅम्बे स्टेट से दो राज्य निकले गुजरात और महाराष्ट्र। लेकिन उनका एक फैसला ऐसा भी था जिसके खिलाफ नेहरू भी थे और फिरोज भी।
1957 में केरल में कम्युनिस्ट पार्टी चुनाव जीतकर सत्ता में आई। इस जीत ने पूरे देश को हैरत में डाल दिया। भारत में पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी चुनाव जीतकर सत्ता में आई थी। केरल में माहौल बदलने लगा था स्कूलों में गांधीजी की जगह मार्क्स की तस्वीरें दिखाई देने लगीं थीं। कांग्रेस को लगा इसको रोकना ही होगा। इंदिरा गांधी ने शिक्षा विधेयक की हित को नुकसान होने के आधार पर केरल सरकार को बरखास्त कर दिया। इंदिरा गांधी ने तब दिखा दिया था कि वे सत्ता के लिए निरंकुश हो सकती हैं। कुछ दशक बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री के तौर पर एक बार फिर से सत्ता के लिए निरंकुश होने वाली थीं। लेकिन अभी नेहरू काल की बात करते हैं।
केरल में फिर से चुनाव हुये। इस बार कम्युनिस्टों की हार हुई और इंदिरा के नेतृत्व में कांग्रेस की जीत हुई। इंदिरा गांधी इस जीत से बहुत खुश थीं। लेकिन नेहरू और फिरोज इस फैसले से खुश नहीं थे। ये एकमात्र मौका था जब नेहरू और फिरोज की राय एक जैसी थी। सर्वपल्ली गोपाल ने बताया कि वो ऐसा फैसला था जिसने नेहरू की प्रतिष्ठा को कलंकित किया और उनकी स्थिति कमजोर हुई। केरल के फैसले के कारण इंदिरा और फिरोज के बीच गंभीर वैवाहिक कलह पैदा हो गई। फिरोज अपनी पत्नी के इस फैसले से बहुत गुस्से में आ गये। उस गुस्से का एक वाकया सुनिये।
केरल के मामले पर नेहरू-गांधी परिवार में नाश्ते के मेज पर चर्चा हुई। फिरोज ने इंदिरा से कहा- ‘यह कतई उचित नहीं है। तुम लोगों को धमका रही हो। तुम फासीवाद हो।’ इंदिरा, फिरोज की इन बातों से तमतमा गईं। वे नाश्ते को बीच में ही छोड़कर कमरे से निकल गईं और बोलीं-
‘तुम मुझे फासीवाद कह रहे हो, मैं ये कतई बर्दाश्त नहीं कर सकती।’
1959 में इंदिरा ने डोरोथी नाॅर्मन को फिरोज के बारे में लिखा-
‘मुसीबतों का विशाल सागर मुझे निगलता जा रहा है। फिरोज मेरे अस्तित्व से हमेशा रूष्ट रहे हैं। चूंकि अब मैं अध्यक्ष बन गई हूं तो वे और दुश्मनी दिखा रहे हैं। सिर्फ मेरी मुश्किलें बढ़ाने के लिये साम्यवादियों की तरफ झुकते चले जा रहे हैं और कांग्रेस को मजबूत करने के लिये मेरी मेहनत पर पलीता लगा रहे हैं।’
इन सबसे परेशान होकर इंदिरा ने कांग्रेस अध्यक्ष से इस्तीफा दे दिया। वे अपने पति और बच्चों के साथ कश्मीर घूमने चली गईं। वहां उन्होंने तय कर लिया कि वे अब राजनीति छोड़कर अपने पति के साथ रहेंगी। लेकिन इतिहास गवाह है कि वो ऐसा नहीं कर पाईं। वो ऐसा इसलिए नहीं कर पाईं क्योंकि वो जिसके लिये राजनीति छोड़ना चाहती थीं। वो 8 सितंबर 1960 को उनकी दुनिया से चला गया। फिरोज गांधी की दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई। इंदिरा तब फफक-फफक कर रोईं। लेकिन इंदिरा को कई और मौतें देखनी थी और उन पर आंसू बहाने थे। ये इंदिरा और फिरोज की कहानी थी जो प्रेम के साथ शुरू हुई थी और उसका अंत टकराव से हुआ।
इन्दिरा-फिरोज के जीवन का यह वाकया सागरीका घोष की किताब इन्दिरा से लिया गया है।
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