Thursday, March 14, 2019

बिहार राजनीति : जब लालू यादव ने जेपी के पैरों में गिरकर कहा, आप ही हमारे लीडर होंगे

18 अप्रैल 1974

पटना का गांधी मैदान लोगों से खचाखच भरा हुआ है। गांधी मैदान ने ऐसी भीड़ इससे पहले न कभी देखी थी और न ही कभी देखने वाला था। ये जयप्रकाश नारायण का कद था जो इतनी भीड़ को ले आये थे। उसी मंच पर एक व्यक्ति और था जो करतब जुटाकर भीड़ जुटा लेने में माहिर था। वो इस भीड़ को देखकर असमंजस में था क्योंकि उसने न इतनी भीड़ को देखा था और न ही इतने लोगों के सामने बोला था। उस शख़्स का नाम है लालू प्रसाद यादव। उस दिन लालू यादव को भीड़ से प्यार हो गया था। लेकिन ये आंदोलन ऐसे ही नहीं बना था, जयप्रकाश नारायण ऐसे ही नही आये थे। पूरी बात जानने के लिए थोड़ा पीछे चलते हैं।
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साल 1965

लालू यादव पटना के बिहार नेशनल काॅलेज में पहुंच गये। इस काॅलेज में वे छात्र जाते थे जो पढ़ने-लिखने में कमज़ोर थे। लालू यादव का भी मन पढ़ाई में नहीं लगता था। लालू यादव यहां राजनीति के मोह में नहीं गये थे, वे तो बस कुछ साल काॅलेज में बेपरवाही में गुज़ारना चाहते थे। लालू यादव उस समय काॅलेज में आये जब बी. एन. काॅलेज राजनीति का गढ़ बन चुका था। काॅलेज में एक दल संगठित हो रहा था जो गैर-कांग्रेसी हो। इनका बस एक ही मकसद था, जिस पार्टी का आज़ादी के बाद से पूरे देश पर बोलबाला रहा है, उस कांग्रेस को हराना है।
नीतीश कुमार से हाथ मिलाते हुए लालू प्रसाद यादव
बिहार में पार्टी जातिवाद में बंधी थी। सवर्ण, हरिजन और मुस्लिम कांग्रेस के वोटर थे। जनसंघ, शहर और कस्बों में व्यापारी वर्ग का था। इन सबके अलावा एक वर्ग और उभरकर आ रहा था – समाजवादी धड़ा। लालू यादव भी इस छात्र राजनीति से दूर नहीं रह पाये। लालू यादव समाजवादी धड़े में शामिल हो गये। लालू यादव को समाजवाद की विचाराधारा का ‘स’ भी नहीं पता था। वे तो बस इसलिए जुड़ गये थे क्योंकि ये उनकी जाति की पार्टी थी। लालू यादव को इस राजनीति ने सिर्फ अवसर ही नहीं दिया, पैसा भी दिया।
समाजवादी नेता श्रीकृष्ण सिंह के बेटे नरेन्द्र सिंह उस समय सक्रिय समाजवादी कार्यकर्ता थे। नरेन्द्र को हर कोई जानता था। नरेन्द्र ने लालू यादव को सोशलिस्ट पार्टी की छात्र शाखा में शामिल कर लिया। बाद में यही नरेन्द्र सिंह लालू प्रसाद की कैबिनेट में मंत्री बनने वाले थे और फिर लालू को धोखा देकर नीतीश कुमार का हाथ मिलाने वाले थे। नरेन्द्र को एक पिछड़ी जाति के एक व्यक्ति की जरूरत थी और लालू यादव में उन्हें वो बात दिख रही थी। जो पिछड़ी जाति के वोट तो खींच ही सकता था और भाषण देने में भी निपुण था।
लालू प्रसाद यादव
कुछ दिनों में लालू यादव समाजवादी पार्टी छात्र नेता के रूप में फेमस हो गये थे। उसके बाद 1967 में छात्र संघ के चुनाव हुए। सबका प्रयास सफल हुआ। ऐसा पहली बार हुआ था कि सत्ता के गलियारे में कांग्रेस की हार हुई हो। विश्वविद्यालय में कांग्रेस यूनियन हार गई और समाजवादी धड़े की जीत हुई। लालू यादव को पटना विश्वविद्यालय का महासचिव बना दिया गया। 1968 और 1969 में वे इसी पद पर रहे। लालू यादव इतने फेमस थे कि 1970 में छात्रसंघ के अध्यक्ष पर उन पर ही दांव चला गया। लेकिन सबकी सोच के विपरीत इस बार लालू यादव कांग्रेस के उम्मीदवार से हार गये। लालू यादव निराश हो गये और राजनीति छोड़कर नौकरी करने लगे।

साल 1973

पटना विश्वविद्यालय में एक बार फिर से गैर-कांग्रेसी दल इकट्ठा हुआ। सब कांग्रेस को हटाने की वकालत कर रहे थे। उन्हें संगठन के नेतृत्व के लिए एक जोशीला नेता चाहिए था जो पिछड़ी जाति से हो। लालू यादव को वापस बुलाया गया। लालू यादव ने राजनीति के लिए अपनी नौकरी छोड़ दी। इस आंदोलन में लालू यादव के साथ वे नेता शामिल थे जो उनके सबसे बड़े विरोधी होने वाले थे- सुशील मोदी और नीतीश कुमार।
नीतीश कुमार(बायीं ओर), शरद यादव(बीच में), लालू प्रसाद यादव(दायीं ओर)
जल्दी ही पटना विश्वविद्यालय राजनीति में झुलसने लगा। हर रोज प्रदर्शन और विरोध किए जाते। लालू यादव ने छात्रों के लिए मांग की। लालू यादव सबके दिलों में राज करने लगे। लालू यादव को अब छात्र संघ का अध्यक्ष बनना था लेकिन उन्होंने काॅलेज छोड़ दिया। अध्यक्ष बनने के लिए लालू यादव ने लाॅ काॅलेज में एडमिशन ले लिया। लालू चुनाव जीते और छात्रसंघ के अध्यक्ष बन गये। फरवरी 1974 में लालू यादव ने सभी काॅलेजों को बंद करने की घोषणा कर दी। उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष अब्दुल गफूर थे। उनके खिलाफ लोगों का गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था।
पूरे राज्य में छात्र आंदोलन ने गति पकड़ ली। विधानसभा का घेराव किया गया, जुलूस निकाले जाने लगे। जिसका नतीजा ये हुआ कि सरकार को कार्रवाई करनी पड़ी और लाठीचार्ज हुआ। जिसमें दर्जनों छात्र मारे गये और सैकड़ों छात्र गिरफ्तार हो गये लेकिन लालू यादव बच निकले। वे पुलिस को देखकर भाग गये थे। बस यहीं आंदोलन में नया मोड़ आ गया।

जेपी की एंट्री

जयप्रकाश नारायण पटना वापस लौट आये थे। छात्रों ने उनसे आग्रह किया कि आप इस आंदोलन का नेतृत्व करें। जेपी नहीं चाहते थे कि ऐसे आंदोलन में शामिल हों जो हिंसा में लिप्त है। जेपी ने छात्रों के सामने शर्त रखी कि मैं नेतृत्व तभी करूंगा जब तुम लोग अहिंसा की शपथ लोगे। छात्रों ने उनकी बात मान ली। जेपी इसलिए भी खुश नहीं थे कि क्योंकि इस संगठन का नेतृत्व लालू यादव कर रहे थे।
जयप्रकाश नारायण
जेपी, लालू यादव को अविश्वसनीय व्यक्ति समझते थे। लालू यादव, जेपी के पैरों में गिर पड़े और बोले- आपको हमारा नेतृत्व करना पड़ेगा। यह एक आदमी के बारे में सोचने का समय नहीं है, देश के बारे में सोचिए। जेपी मान गये और फिर देश ने पटना के गांधी मैदान में जेपी का जादू देखा।
यह किस्सा संकर्षण ठाकुर द्वारा लिखी गई किताब 'द बिहारी ब्रदर्स' से लिया गया है।

बिहार राजनीतिः जब लालू यादव ने कहा आपको नया नेता चुनना है, चुन लीजिए

एक कमरे में दो शख्स आपस में बात कर रहे हैं। सफेद कपड़ों में बैठा व्यक्ति डरा हुआ लग रहा है। उसे डर था आने वाली सुबह का, वो डरा हुआ था कोर्ट में आये फैसले से। उसने अपने साथ वाले व्यक्ति से पूछा- क्या सीबीआई सच में उसको जेल भेज सकता है? उस व्यक्ति ने हां में जवाब दिया। कितने समय के लिए? अगला सवाल फिर आया। जवाब आया-शायद 6 महीने के लिए। उसके बाद एक उदासी भरा वाक्य कमरे में गूंजा। सही ही है, शायद मुझे जनता की थोड़ी-बहुत सहानुभूति मिल जायेगी।

24 जुलाई, 1997

पटना हाइकोर्ट में वकीलों और मीडिया की अच्छी-खासी भीड़ थी। उस दिन बिहार के मुख्यमंत्री पर फैसला होना था। सबको लग रहा था कि इस बार भी चतुर नेता फिर चूहे-बिल्ली का खेल ही खेलेंगे। लेकिन पटना हाईकोर्ट ने उस अर्जी को खारिज कर दिया। मतलब मुख्यमंत्री को अब जेल जाना था।
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लालू यादव की जमानत याचिका खारिज कर दी गई थी।
मुख्यमंत्री जो राज्य को अपना शासन समझता था, नेता जो सबका चहेता था,जिसने चतुराई अपने गुरू चन्द्रशेखर से सीखी थी। ये बिहार के चतुर नेता लालू प्रसाद यादव के चारे घोटाले का किस्सा है। जिसमें हार के बाद भी शासन उनका ही बना रहा।
गुजराल उस समय देश के प्रधानमंत्री थे और लालू उनके चहेते माने जाते थे। जब गुजराल लालू प्रसाद को बचाने की कोशिश करने लगे तो उनको आदेश मिला कि ऐसा किया तो सरकार गिर सकती है। सरकारी बंगला, 1 अणे मार्ग जो लोगों के जमावड़े से भरा रहता था। वहां उस दिन उदासी और निराशा पसरी हुई थी। घर पर बार-बार फोन बजता और लालू उसे उठाकर गुस्से में पटक देते। राबड़ी देवी और बेटे अपने कमरे में रो रहे थे। सिर्फ बड़ी बेटी मींसा गांधी अपने पर नियंत्रण रखी थी और चुप थी।
वहीं दूसरी ओर पटना उच्च न्यायालय के बाद से कानूनी प्रक्रिया तेज होने लगी। डेढ़ साल की पूरी मेहनत के बाद लालू प्रसाद यादव के खिलाफ वारंट मिला था। उपेन्द्र नाथ बिस्वास लालू प्रसाद की गिरफ्तारी में देरी नहीं करना चाहते थे। उपेन्द्रनाथ सीबीआई निदेशक और चारा घोटाले के जांचकर्ता थे। उपेन्द्र नाथ को डर था कि लालू की गिरफ्तारी से राज्य में दंगे भड़क सकते हैं, खून खराबा हो सकता है। इसलिए पश्चिम बिहार के उस बंगले को चारों तरफ से रैपिड एक्शन फोर्स ने घेर लिया। जहां बिहार के मुख्यमंत्री और राज्यपाल रहते थे।
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लालू यादव का पूरा परिवार।
लालू यादव के बंगले से थोड़ी दूर पर भारतीय जनता पार्टी का कार्यालय था। जहां बीजेपी कार्यकर्ता और समर्थक इस फैसले से जश्न मना रहे थे, मिठाई बांट रहे थे। बीजेपी नेताओं को लगने लगा कि लालू यादव का युग समाप्त हो गया है। सुशील मोदी उस फैसले को याद करते हुए बताते हैं
‘‘लालू यादव बहुत चतुर राजनीतिज्ञ है लेकिन उस शाम मुझे लगा था कि सारे रास्ते बंद हो चुके थे।”
लालू प्रसाद यादव अपना आखिरी जोर लगा रहे थे। उन्होंने दिल्ली प्रधानमंत्री गुजराल को फोन लगाया। गुजराल से लालू यादव की बात नहीं हो पाई। लेकिन एक संदेश आया, राज्यपाल ए. आर. किदवई के पास। संदेश में साफ था कि लालू यादव का वारंट आ चुका है। उनका इस्तीफा दिलवाओ या बरखास्त करो।
जांचकर्ता उपेन्द्रनाथ विस्वास के लिए वो शाम बड़ी ही अधीर थी। अगले दिन वे राज्य के सबसे बड़े नेता और मुख्यमंत्री को गिरफ्तार करने वाले थे। उपेन्द्रनाथ मुख्यमंत्री आवास के पास कोल इंडिया गेस्ट हाऊस में रूके हुये थे। उस दिन को याद करते हुए उपेन्द्र बताते हैं ‘‘उस समय मैं बहुत उत्साहित था और बैचेन भी। मैं जानता था लालू यादव चतुर राजनेता हैं। मैं उन सभी खामियों के बारे में सोच रहा था जिनका फायदा उठाकर लालू यादव सीबीआई के शिकंजे से बच सकते हैं।’’
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चारे घोटाले के जांचकर्ता उपेन्द्र नाथ बिस्वास।
रात 10 बजे लालू यादव अपने बंगले पर अपने साथियों के साथ बैठे थे। निराश और उदास होकर सीढ़ियों से अपने कमरे में जाने लगे। जहां उनकी पत्नी राबड़ी देवी रो रहीं थीं। लालू यादव को अब एक कठिन निर्णय लेना था। सीढ़ी चढ़ते हुये लालू प्रसाद ने निर्णय ले लिया था। अपने कमरे में जाकर अपनी पत्नी को आदेश सुना दिया।

कल तुमको सीएम पद की शपथ लेना है, तैयारी शुरू करो।

लालू यादव के संयुक्त मोर्चे ने उनका साथ देने से मना कर दिया था। अब राबड़ी देवी का मुख्यमंत्री बनना मुश्किल लग रहा था। लालू ने अपना दूसरा दांव चला। दिल्ली में बैठे कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी को फोन लगाकर। केसरी उस समय फोन पर नहीं आये। लालू ने अपने विश्वसनीय राधानंद झा को एक संदेश लेकर दिल्ली भेजा। लालू प्रसाद यादव अब समर्पण करने को तैयार थे लेकिन सत्ता छोड़ने को नहीं।
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लालू यादव उस फैसले के कारण परेशान थे।

25 जुलाई 1997

उपेन्द्र नाथ बिस्वास अपनी पूरी तैयारी के साथ लालू यादव को गिरफ्तार करने जा रहे थे। तभी उनके पास एक फोन आता है। उन्हें संदेश मिलता है लालू यादव खुद आत्म समर्पण करने आ रहे हैं। बस उन्होंने इंतजाम करने के लिए थोड़ा समय मांगा है। लालू यादव विधानमंडल जाते हैं और सभी मंत्रियों के सामने इस्तीफे की घोषणा कर देते हैं।

‘‘आप लोगों को नया नेता चुनना है, चुन लीजिए।’’

इतना बोलकर लालू मीटिंग छोड़कर चले जाते हैं। थोड़ी देर बाद राबड़ी देवी पहुंचती हैं। साथ में भाई साधु यादव और अनवर अहमद भी आते हैं। नेता के चुनने की प्रक्रिया शुरू होती है। ऊर्जा मंत्री श्याम रजक एक नाम का प्रस्ताव पेश करते है और पूरे हाॅल में नारा गूंजने लगता है- ‘लालू यादव जिंदाबाद! राबड़ी देवी जिंदाबाद!
बाद में सबने लालू यादव के इस फैसले पर नैतिकता और वंशवाद की स्याही छिड़कनी चाही। लालू बेखटक जवाब देते, कैसा वंशवाद! मैंने अपनी सत्ता बचाई है। अगर राजनैतिक विरोधी को सत्ता न देना अनैतिकता है तो मैं ऐसी नैतिकता करता रहूंगा।
 ये किस्सा संकर्षण ठाकुर की किताब बिहारी बंधु के आधार पर लिखा गया है।

क्या सच में इंदिरा गांधी के फिरोज के अलावा किसी और से प्रेम संबंध थे?

इन्दिरा गांधी प्रधानमंत्री आवास के एक कमरे में बैठी थी। तब इन्दिरा काँग्रेस की अध्यक्ष हुआ करती थी। कमरे में उनके साथ एक और शख्स बैठा हुआ था। तभी उस कमरे में एक और शख्स आता है इन्दिरा के साथ उस शख्स को देखता है और गुस्से में इन्दिरा गांधी से कहता है- “मुझे तुमसे कुछ कहना था लेकिन अब बाद में कहूँगा”। इस वाकये को सुनकर लगता है कि वो गुस्सैल व्यक्ति फिरोज गांधी होंगे लेकिन वो शख्स फिरोज गांधी नहीं कोई और था। जिसने आगे चलकर बताया कि इन्दिरा गांधी और उसके बीच प्रेम संबंध थे। तब की बात में आज किस्सा इन्दिरा गांधी के प्रेम संबंध की।

फिरोज और इन्दिरा गांधी के बीच तनातनी इतनी बढ़ गई थी कि लगने लगा था कि जल्दी ही दोनों के बीच तलाक हो जाएगा। इसका कारण फिरोज के कई लड़कियों के साथ प्रेम संबंध थे जिसके कारण इन्दिरा और फिरोज के रिश्ते खराब होने लगे थे। जवाहर लाल नेहरू तो पहले से ही फिरोज गांधी को पसंद नहीं करते थे। फिरोज कि मौत के दो साल पहले 1958 में पुपुल जयकर ने इंदिरा को उड़ रही अफवाह के बारे में बताया था कि फिरोज से बदला लेने के लिए वे कई पुरुषों के साथ प्रेम संबंध बना रही हैं। ये सुनकर इंदिरा गांधी ने गुस्से में कहा- ‘इससे पहले कि तुम दिल्ली की गपशप मंडली से इस बारे में जानो, मैं तुम्हें बता दूं कि मैं फिरोज को तलाक दे रही हूँ’। फिरोज गांधी ने भी ऐसा ही कुछ अपने दोस्तों से गुस्से में कहा था। फिरोज ने इंदिरा को इन्दु या मेरी पत्नी कहना बंद कर दिया था। उसकी जगह फिरोज उनको श्रीमती गांधी कहकर पुकारते।
जवाहर लाल नेहरू का पूरा जीवन बेहतर लोगों से दोस्ती बनाने में बीता। जिसका फायदा बाद में इन्दिरा गांधी को भी मिला। डीपी धर और पीएन हक्सर पंडित नेहरू के ही करीबी थे जिन्होने इन्दिरा गांधी का साथ कभी नहीं छोड़ा। ऐसे ही एक शख्स और हैं जिन्होने जवाहर लाल नेहरू को बड़े करीब से देखा, एम ओ मथाई।
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एम ओ मथाई 1946 से 1959 तक जवाहर लाल नेहरू के पर्सनल सेक्रेटरी रहे। एम ओ मथाई छोटे कद के फुर्तीले शख्स जो अपने काम को पूरी लगन से करते। उनकी यही लगन उनको नेहरू परिवार के इतने करीब बनाए हुये थी। उन्हें सभी लोग मैक कहकर पुकारते थे। मथाई नेहरू के बहुत करीब थे, वे उन लोगों में आते थे जिन पर जवाहर लाल नेहरू आँख मूंदकर विश्वास कर लेते थे। उनकी पंडित नेहरू से ये नजदीकी इन्दिरा गांधी को पसंद नहीं थी। इसका तोड़ उन्होने प्रेम निकाला। इन्दिरा गांधी कथित रूप से मथाई कि प्रेमिका थीं। एम ओ मथाई ने एक किताब लिखी ‘रेमिनिसेंसेज ऑफ नेहरू एज’, जिसमें एक चैप्टर है ‘शी’। इसमें मथाई ने इन्दिरा गांधी और अपने प्रेम के बारे में लिखा है। हालांकि ये किताब जब छपी थी तब उसमें ये चैप्टर नहीं था। जिसे बाद में मेनका गांधी ने लोगों के सामने प्रसारित किया था।
इस किताब में लिखा है कि जवाहर लाल नेहरू एडविना माउंटबैटन, पद्मजा नेहरू और मृदुल साराभाई जैसी सुंदरियों के साथ व्यस्त रहते थे। जिसकी वजह से वे अपनी सरकार सही से नहीं चला पा रहे थे। इन्हीं कारणो से हम 1962 कि जंग में चीन से हार गये। अब उस चैप्टर पर आते हैं जिसमें इंदिरा और मथाई के प्रेम के बारे में लिखा गया है। मथाई ने इस चैप्टर में लिखा कि उनके और इंदिरा के बीच गहरा प्रेम था और इस प्रेम कि शुरुआत इंदिरा के घर में हुई थी। मथाई बताते हैं कि उनके और इंदिरा के बीच 12 साल तक प्रेम बना रहा। मथाई ने इस चैप्टर में लिखा कि उनके प्रेम से इंदिरा एक बार माँ भी बनीं थीं। जिसका इंदिरा ने अबॉरशन करा लिया था।
मथाई लिखते हैं कि इंदिरा ने उनसे एक बार कहा था- मैं तुम्हारे साथ सोना चाहती हूँ।’ जिसके जवाब में मथाई ने कहा था कि मुझे अभी इसका अनुभव नहीं है। तब इंदिरा ने उनको दो किताबें दीं जिसमें सेक्स के बारे में में जानकारी दी गई थी। मथाई ने इस चैप्टर में लिखा कि इंदिरा उनके हाथ को सख्ती से पकड़े रहती थीं और प्यार से उनको भूपत कहती। मथाई भी इंदिरा को पुतली कहा करते थे। इसी चैप्टर में मथाई इंदिरा के बारे में लिखते हैं- उसकी क्लियोपैट्रा जैसी नाक है, पाऊलिन बोनापार्ट जैसी आँखें हैं और वीनस जैसे स्तन हैं। उसकी रूखी और घृणास्पद छवि केवल सुरक्षा का कवच था, वे बिस्तर पर बड़ी मजेदार थीं। संभोग के दौरान उसमें फ्रांसीसी औरतों और केरल की महिलाओ का मिश्रण होता, इंदिरा को लंबे-लंबे चुंबन पसंद थे। इस चैप्टर की आखिरी लाइन है- मैं भी उसे प्रेम करने लगा था।
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इस प्रेम संबंध पर इंदिरा ने कभी कोई बात नहीं की। नेहरू के जीवनी लेखक और सर्वपल्ली गोपाल ने उन दोनों के बारे में कहा था- उनको एक-दूसरे को लुभाने में बड़ा मजा आता था। इंदिरा मथाई को कुछ ज्यादा ही बढ़ावा देती थीं। कांग्रेस के नटवर शाह इस बारे में कहते हैं- मथाई ने नेहरू परिवार को बहुत नुकसान पहुंचाया। उन्होने अपने स्वार्थ के कारण इस प्रेम संबंध की अफवाह फैलाई। फिरोज के दोस्त निखिल चक्रवर्ती ने जब मथाई को पैसों के लेनदेन में गड़बड़ी करते पाया तो 1959 में उनको नेहरू परिवार से सेवा त्यागनी पड़ी। इस कहानी की शुरुआत मैंने एक किस्से से की थी। वो किस्सा था मथाई और इंदिरा के प्रेम सम्बन्धों के खत्म होने का। जब मथाई ने इंदिरा को धीरेन्द्र ब्रांहचारी के साथ देखा तो मथाई इंदिरा की जिंदगी से हमेशा के लिए चले गये। ये किस्सा है सच और झूठ के बीच का। सच क्या है वो तो या तो इंदिरा को पता था या मथाई को। मथाई ने अपने हिस्से की बातें बता दी हैं लेकिन इंदिरा की चुप्पी इस वाकये को बंद तिजोरी की तरह छोड़ गई हैं। हमारे पास तो कहानी थी सो बता दी अब सही है या गलत। ये आपके विवेक पर छोड़ते हैं।
इस आर्टिकल के अंश सागरिका घोष की किताब इन्दिरा से भी लिए गए हैं।

वो सियासी फैसला जिसके कारण इंदिरा-फिरोज के रिश्ते में कलह पड़ी

साल 1952

रायबरेली की चिलचिलाती धूप में एक तांगा धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है। उसमें एक महिला अपने पति के लिये वोट मांग रही है। वो तांगे से उतरती है और लोगों से मुस्कुराकर वोट देनी की अपील करती है। महिला का सिर पल्लू से ढंका हुआ है। ये महिला इंदिरा गांधी थी जो अपने पति फिरोज गांधी के लिये चुनाव प्रचार कर रहीं थीं। फिरोज-इंदिरा अब सियासत के गलियारे में आ गए थे। यही सियासत दोनों को एक-दूसरे का विरोधी बनाने वाली थी। यही सियासत इंदिरा गांधी से ऐसा फैसला करवाने वाली थी जो उनके और फिरोज के बीच कलह की वजह बनने वाली थी।
Related imageइंदिरा लखनऊ से नई दिल्ली आकर रहने लगी थीं। शुरूआत में इंदिरा तीन मूर्ति भवन को घर बनाने में लग गईं। वे भोजन की व्यवस्था करतीं और कार्यक्रमों का आयोजन करवाती। वे अपने पिता की कुशल प्रबंधक बन गईं। जवाहर लाल नेहरू विदेश जाते तो साथ इंदिरा भी होतीं। उनको दिल्ली की जिंदगी अच्छी लगने लगी थी। तीन मूर्ति के बारे में इंदिरा गांधी ने लिखा-
‘‘ऐसे लंबे-चौड़े कमरे, दूर तक जाते गलियारे! क्या इनको कभी रहने लायक बनाया जा सकता था? क्या इनमें घर जैसा महसूस किया जा सकता था? यदि किसी को कोई काम करना हो तो बेहतर है कि उसे बढ़िया ढंग से करे, इसलिए मैं उसी में रम गई।’’
1952 में वे राजनीति में तो आईं लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से। उन्होंने फूलपुर में अपने पिता के लिए प्रचार किया और रायबरेली में अपने पति के लिये। उनके इस हुनर से जवाहर लाल नेहरू काफी प्रभावित हुये। उनको कभी नहीं लगा था कि उनकी बेटी राजनीति में आने की इच्छा रखती है। लेकिन अभी वे प्रचार में व्यस्त थीं। 1952 में उन्होंने अपने पति को जिताने के लिए जबरदस्त चुनाव प्रचार किया। फिरोज चुनाव जीतकर ससंद पहुंच गये। यहां से फिरोज में एक बड़ा बदलाव आया। हमेशा पीछे बैठने वाला फिरोज संसद में पहुंचकर तेजतर्रार हो गया। वे नेहरू खेमे में वामपंथी थे वैसे ही जैसे 1940 के दौर में जवाहर लाल नेहरू थे।
1955 में फिरोज गांधी ने जीवन बीमा कारोबार में अवैध सौदों का खुलासा किया और सरकार को उसका राष्ट्रियकरण करने पर मजबूर कर दिया। वे संसद में जितने मुखर थे दिल्ली के घर में उनको उतनी ही घुटन होती थी। उनको प्रधानमंत्री का दामाद कहलवाना पसंद नहीं था। फिरोज की सफलता के कारण इंदिरा-फिरोज में प्रतिस्पर्धा होने लगी और दोनों के रिश्ते बिगड़ते गये। एक तरफ संसद में फिरोज का कद बढ़ रहा था तो इंदिरा गांधी भी राजनीति में सक्रिय हो गई थीं। 1955 में इंदिरा गांधी कांग्रेस कार्यसमिति की सदस्य बन गईं। एक साल बाद उनको उसी कांग्रेस समिति का अध्यक्ष चुन लिया गया। धीरे-धीरे उनका कद बढ़ता ही जा रहा था। 1958 में वे केन्द्रीय संसदीय बोर्ड की अध्यक्ष बन गईं।
Image result for indira gandhi 1960जो लोग कहते हैं कि इंदिरा के राजनीति में आने से पंडित नेहरू की भूमिका थी या वे इस फैसले से खुश थे, उनको ये बात ध्यान से सुननी चाहिये कि जवाहर लाल नेहरू वंशवाद के विरोधी थे। उन्होंने कभी इंदिरा से नहीं कहा कि तुम राजनीति में आओ। जीबी पंत के जोर देने पर इंदिरा गांधी 1959 में कांग्रेस की अध्यक्ष बन गईं। तब जवाहर लाल का कहना था-
‘सामान्यतः यह ठीक नहीं है कि मेरे प्रधानमंत्री रहते मेरी पुत्री कांग्रेस अध्यक्ष बन जाए।’
इंदिरा गांधी के राजनैतिक उफान से पति-पत्नी बहुत दूर हो गये थे। अब वे एक-दूसरे के विरोधी हो गये थे। अध्यक्ष के रूप में इंदिरा गांधी का कार्यकाल असरदार रहा। भाषाई आधार पर राज्य बंट रहे थे। हालांकि नेहरू उसके विरोध में थे। बाॅम्बे स्टेट से दो राज्य निकले गुजरात और महाराष्ट्र। लेकिन उनका एक फैसला ऐसा भी था जिसके खिलाफ नेहरू भी थे और फिरोज भी।
1957 में केरल में कम्युनिस्ट पार्टी चुनाव जीतकर सत्ता में आई। इस जीत ने पूरे देश को हैरत में डाल दिया। भारत में पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी चुनाव जीतकर सत्ता में आई थी। केरल में माहौल बदलने लगा था स्कूलों में गांधीजी की जगह मार्क्स की तस्वीरें दिखाई देने लगीं थीं। कांग्रेस को लगा इसको रोकना ही होगा। इंदिरा गांधी ने शिक्षा विधेयक की हित को नुकसान होने के आधार पर केरल सरकार को बरखास्त कर दिया। इंदिरा गांधी ने तब दिखा दिया था कि वे सत्ता के लिए निरंकुश हो सकती हैं। कुछ दशक बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री के तौर पर एक बार फिर से सत्ता के लिए निरंकुश होने वाली थीं। लेकिन अभी नेहरू काल की बात करते हैं।
Image result for indira gandhi 1960केरल में फिर से चुनाव हुये। इस बार कम्युनिस्टों की हार हुई और इंदिरा के नेतृत्व में कांग्रेस की जीत हुई। इंदिरा गांधी इस जीत से बहुत खुश थीं। लेकिन नेहरू और फिरोज इस फैसले से खुश नहीं थे। ये एकमात्र मौका था जब नेहरू और फिरोज की राय एक जैसी थी। सर्वपल्ली गोपाल ने बताया कि वो ऐसा फैसला था जिसने नेहरू की प्रतिष्ठा को कलंकित किया और उनकी स्थिति कमजोर हुई। केरल के फैसले के कारण इंदिरा और फिरोज के बीच गंभीर वैवाहिक कलह पैदा हो गई। फिरोज अपनी पत्नी के इस फैसले से बहुत गुस्से में आ गये। उस गुस्से का एक वाकया सुनिये।
केरल के मामले पर नेहरू-गांधी परिवार में नाश्ते के मेज पर चर्चा हुई। फिरोज ने इंदिरा से कहा- ‘यह कतई उचित नहीं है। तुम लोगों को धमका रही हो। तुम फासीवाद हो।’ इंदिरा, फिरोज की इन बातों से तमतमा गईं। वे नाश्ते को बीच में ही छोड़कर कमरे से निकल गईं और बोलीं-
‘तुम मुझे फासीवाद कह रहे हो, मैं ये कतई बर्दाश्त नहीं कर सकती।’
1959 में इंदिरा ने डोरोथी नाॅर्मन को फिरोज के बारे में लिखा-
‘मुसीबतों का विशाल सागर मुझे निगलता जा रहा है। फिरोज मेरे अस्तित्व से हमेशा रूष्ट रहे हैं। चूंकि अब मैं अध्यक्ष बन गई हूं तो वे और दुश्मनी दिखा रहे हैं। सिर्फ मेरी मुश्किलें बढ़ाने के लिये साम्यवादियों की तरफ झुकते चले जा रहे हैं और कांग्रेस को मजबूत करने के लिये मेरी मेहनत पर पलीता लगा रहे हैं।’
इन सबसे परेशान होकर इंदिरा ने कांग्रेस अध्यक्ष से इस्तीफा दे दिया। वे अपने पति और बच्चों के साथ कश्मीर घूमने चली गईं। वहां उन्होंने तय कर लिया कि वे अब राजनीति छोड़कर अपने पति के साथ रहेंगी। लेकिन इतिहास गवाह है कि वो ऐसा नहीं कर पाईं। वो ऐसा इसलिए नहीं कर पाईं क्योंकि वो जिसके लिये राजनीति छोड़ना चाहती थीं। वो 8 सितंबर 1960 को उनकी दुनिया से चला गया। फिरोज गांधी की दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई। इंदिरा तब फफक-फफक कर रोईं। लेकिन इंदिरा को कई और मौतें देखनी थी और उन पर आंसू बहाने थे। ये इंदिरा और फिरोज की कहानी थी जो प्रेम के साथ शुरू हुई थी और उसका अंत टकराव से हुआ।
इन्दिरा-फिरोज के जीवन का यह वाकया सागरीका घोष की किताब इन्दिरा से लिया गया है।

Friday, March 8, 2019

जवाहर लाल नेहरू का वो फैसला जिसने इंदिरा-फिरोज को अलग कर दिया था।

एक देह सामने पड़ी हुई है। उसके बगल में ही सफेद साड़ी में एक औरत बैठी हुई है। जो बिलख-बिलखकर रो रही है। वहीं हजारों लोग भी खड़े थे जो उस व्यक्ति के अंतिम दर्शन करना चाहते थे। उस भीड़ को देखकर सबसे बड़ा व्यक्ति बोला- मुझे नहीं पता था कि ये लोगों में इतना लोकप्रिय था। ये कहना वाला शख्स देश का प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू है और जो लाश पड़ी है वो उनके दामाद फिरोज गांधी की है। वहीं सफेद साड़ी में बिलखने वाली औरत इंदिरा गांधी हैं। आज बात इंदिरा-फिरोज के विरोधी रूप की जिसकी वजह जवाहर लाल नेहरू का एक पत्र बना।

फिरोज और इंदिरा गांधी का विवाह 26 मार्च 1942 को हुआ। उनकी शादी के 6 महीने बाद ही दोनों भारत छोड़ो आंदोलन में जेल भी गये। जेल से रिहा होने के बाद दोनों आनंद भवन में रहने लगे। जल्दी ही दोनों ने एक बेटे को जन्म दिया। 20 अगस्त 1944 को मुंबई में उनकी पहली संतान राजीव रत्न बिरजीस नेहरू गांधी का जन्म हुआ। राजीव का ये नाम इसलिये रखा गया ताकि याद रखा जाये कि वो जितना फिरोज का बेटा है। उतना ही वो नेहरू का पोता है। तब जवाहर लाल नेहरू जेल में थे। उन्होंने जेल से इंदिरा गांधी को लिखा-

‘‘नेहरू को अतिरिक्त नाम की तरह जोड़ दिया जाए तो कैसा रहेगा। नेहरू गांधी नहीं वो मूर्खतापूर्ण लगता है। बल्कि नेहरू अतिरिक्त नाम के रूप में।’’

इंदिरा अक्सर कश्मीर जाया करती थीं। वे जब भी परेशान होती कश्मीर आ जाया करती। वो कश्मीर में अपने बेटे राजीव और पति फिरोज के साथ थी। तब सूचना मिली की जवाहर लाल नेहरू को जेल से रिहा कर दिया गया है। जवाहर लाल नेहरू को 15 जून 1945 को रिहा किया गया। तब इंदिरा अपने पति और बेटे को छोड़कर अपने पिता के पास जाना चाहती थीं। इंदिरा को लगा कि इस समय उनको अपने पिता के साथ होना चाहिये। जब फिरोज ने कहा कि तुम्हारे जाने से क्या होगा? तो वो बोली मुझे नहीं पता, मुझे बस जाना है। यही इशारा बाद में इंदिरा को जवाहर लाल नेहरू के पास और फिरोज गांधी से दूर करने वाला था।
Related image1945 में आम चुनाव हुये। 102 सीटों के इस चुनाव में कांग्रेस 59 सीटें जीतकर सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। इंदिरा ने तब अपने ‘पापू’ को लिखा-

‘‘मैं दिल्ली में आपकी और आपसे ज्यादा उस महान संगठन की, जिसके आप प्रतिनिधि हैं। इस जीत को अपनी आंखों से देखने के लिये बेहद तरस रही हूं।’’

1946 में फिरोज गांधी नेहरू परिवार का अखबार नेशनल हेराल्ड का संपादन संभालने लगे। दोनों पति-पत्नी हजरतगंज में आकर रहने लगे। फिरोज को बागवानी करने में मजा आता था और इंदिरा को गृहस्थ के काम करने में। लेकिन वो गृहस्थी शौकिया तौर पर करती थी। उसे हमेशा करने के लिये इंदिरा बनी भी नहीं थीं। इंदिरा ने इस शहर के बारे में अपने पिता को लिखा-
‘‘हमारे सूबाई शहर में एक अजब सी मुर्दनी छाई हुई है- भ्रष्टाचार और ढिलाई , माहौल को दुःखद बना रहे हैं। कुछ लोगों की आत्मसंतुष्टि, कुछ का कपट, जीवन में जरा-सी भी रवानगी नहीं है। यह अविश्वसनीय नहीं है कि फासीवाद के आडंबरपूर्ण जाल ने दसियों लाखों लोगों को आकर्षित कर लिया है। आरएसएस जमीन की तर्ज पर तेजी से मजबूत होता जा रहा है। अधिकतर कांग्रेसियों व सरकारी नौकरों का भी इन प्रवृत्तियों को समर्थन हासिल है।’’
इन दिनों फिरोज गांधी के अफेयर की खबरें आने लगीं। फिरोज के अखबार की तरफ ध्यान न देने के कारण अखबार चलाने में वित्तीय संकट आ गया। फिरोज के द्वारा पैसे के दुरूपयोग से इंदिरा नाराज थीं। इसी दौरान वे राजनेता अली जहीर के बेटी के साथ इश्क में पड़ गये। इस प्रेम संबंध ने इतना तूल पकड़ा कि नेहरू को खुद इसमें बीच में पड़कर रोकना पड़ा। इसी दौरान 14 दिसंबर 1946 को इंदिरा गांधी ने दूसरे बेटे को जन्म दिया, नाम रखा संजय। जो महाभारत से अंधे धृतराष्ट के सहायक के रूप में थे। आगे चलकर इसी संजय के लिये इंदिरा धृतराष्ट बनने वाली थीं।
Image result for jawahar lal nehru and indira gandhiजब आजादी की रात जवाहर लाल नेहरू देश के नाम संदेश दे रहे थे तब इंदिरा और फिरोज वहीं थे। लेकिन दोनों के होने में अंतर था। इंदिरा हर वक्त नेहरू के साथ थीं जबकि फिरोज गांधी को बाकी पत्रकारों के साथ बैठाया गया था। यहां से साफ हो रहा था कि नेहरू ने दो दिशा खींच दी थी जो आगे चलकर और तेज होने वाली थी। 30 जनवरी 1948 को देश ने अपने बापू की हत्या देखी। इसके बाद जवाहर लाल नेहरू की सुरक्षा बढ़ा दी गई। तब नेहरू ने घर संभालने के लिये इंदिरा को बुलाया। इंदिरा गांधी तीन मूर्ति भवन में आ गईं जहां देश के प्रधानमंत्री रहते थे। इंदिरा के साथ उनके दोनों बेटे भी आ गये। अपने इस फैसले पर बाद में इंदिरा लिखती हैं-
‘‘अगर मैं नहीं आती तो मेरे पिता को बुरा लगता, मना करना बहुत कठिन था। यह बड़ी समस्या थी क्योंकि फिरोज के लिए स्वाभाविक था कि उन्हें मेरा जाना कतई पसंद नहीं आए।’’
वो फैसला इंदिरा गांधी और फिरोज के जीवन की दिशा बदल देना वाला था। वो फिरोज गांधी को एक सशक्त नेता और बेहतरीन राजनेता बना देने वाला था। जो संसद में खड़े होकर नेहरू को चुनौती देने वाला था। वो नेहरू के मुख्यमंत्री को गद्दी से उतार फेंकने वाला था। तीन मूर्ति भवन के इस फैसले से इंदिरा अपने पति से दूर जाने वाली थीं और अपने पति को अपना विरोधी समझने वाली थीं।
ये वाकया सागारिका घोष की किताब इंदिरा से लिया गया है।

पंडित नेहरू की वो चिट्ठी जिसकी वजह से जन गण मन हमारा राष्ट्रगान बना

जिस गीत को सुनकर हम अपने आप ही खड़े हो जाते हैं और जिसके नीचे खड़े होना गर्व महसूस होता है वो है हमारा राष्ट्रगान। उस जन गण मन को हम बचपन से गाते आ रहे हैं। लेकिन वो जन गण मन ऐसे ही राष्ट्रगान नहीं बन गया था। उसको बनने मे कई दिक्कतें आईं थीं और कुछ लोगों के विरोध का भी सामना करना पड़ा था। जिनका मानना था कि देश की आजादी में हमारा गीत वंदेमातरम रहा है तो आजाद भारत में हमारा राष्ट्रगान वंदेमातरम की जगह जन गण मन क्यों?





इस सवाल को लेने से पहले जन गण मन के बारे में बात कर लेते हैं। जन गण मन सबसे पहले साल 1911 में कलकत्ता अधिवेशन में गाया था। जन गण मन को रविन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा था। उन्होंने लिखते वक्त ये नहीं सोचा था कि ये गीत आगे चलकर देश का राष्ट्रगान बनेगा। उन्होंने तो इसे तत्वबोधिनी पत्रिका में ‘भाग्य विधाता’ के नाम से प्रकाशित करवाया था। 27 दिसंबर 1911 को कलकत्ता अधिवेशन में जॉर्ज पंचम की उपस्थिती में इसे पहली बार गाया गया था। उसके बाद आजाद होने के बाद भारत ने अपना झंडा तो चुन लिया था लेकिन राष्ट्रगान नहीं चुना था, जिसकी वजह से कई परेशानियां आ रहीं थीं क्योंकि राष्ट्रगान को हर बड़े प्रोटोकाॅल के समय गाया जाना था।
इस बारे में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 21 मई 1948 को कैबिनेट को इस बारे में एक नोट लिखा। ये नोट जो जन गण मन को राष्ट्रगान बनाने की पूरी कहानी है-
‘‘हमने भारत का राष्ट्रध्वज और अधिकारिक चिह्न तय कर लिया है। हमें जल्द ही अपना राष्ट्रगान भी तय करना होगा। इस मामले में जल्दबाजी करना थोड़ा कठिन है लेकिन कुछ फौरी इंतजाम जल्द से जल्द करने होंगे क्योंकि रोज ही अधिकारिक अवसर आते हैं जब राष्ट्रगान को बजाया जाना जरूरी हो जाता है। यह ऐसा मामला नहीं है जो भारत में ही असर डालता है। विदेश में हमारे दूतावासों और प्रतिनिधि मंडलों को खास मौकों पर राष्टगान बजाना होता है। विदेशी अथाॅरिटीज को भी खास मौकों पर हमारा राष्टगान बजाना होता है। ये सब जानना चाहते हैं कि इस मामले में क्या करना है?

इसलिए यह जरूरी हो गया है कि फौरी तौर पर एक राष्ट्रगान तय कर लिया जाए जो भारत और विदेश में भी सभी मौकों पर बजाया जा सके। इसको पूरी जांच-पड़ताल के बाद अंतिम रूप दिया जा सकता है। यह भी हो सकता है कि बाद में एकदम नई धुन और नए शब्द खोज लिए जाएं। हालांकि इसकी गुंजाइश कम ही है फिर भी हम इस संभावना को सिरे से खारिज नहीं कर सकते।

जन गण मन ही क्यों?

जवाहर लाल नेहरू ने आगे लिखा:
इस समय हमारे पास ‘जन गण मन’ और ‘वंदे मातरम’ दो विकल्प हैं। आजकल सेना के बैंड भारत और विदेश दोनों जगह अधिकारिक अवसरों पर काफी हद तक ‘जन गण मन’ ही बजा रहे हैं। मैंने विभिन्न प्रांतों के गर्वनरों से बात की और उनसे कहा कि वे अपने मुख्यमंत्रियों से इस बारे में सलाह-मशविरा करें। उन सब ने आम राय से ‘जन गण मन’ को समर्थन दिया है। इसमें से एकमात्र अपवाद सेंटल प्रोविंस के गर्वनर हैं। जाहिर है कि सवाल किसी व्यक्ति की निजी राय का नहीं, सामान्य तौर पर स्वीकृति का है। इसमें भी यही दिखाई देता है कि आम तौर पर ‘जन गण मन’ ही बजाया जा रहा है।

निश्चित तौर पर वंदेमातरम एक लोकप्रिय गीत है और हमारी आजादी की लड़ाई से इसका गहरा रिश्ता है। इसलिए यह एक पसंदीदा राष्ट्रीय गीत के तौर पर बना रहेगा, जो हमारी स्मृतियों को जागृत रखेगा। निश्चित तौर पर राष्ट्रगान शब्दों का ही एक रूप है लेकिन उससे भी बढ़कर यह कहीं एक धुन या म्यूजिकल स्कोर है। इसे ऑर्केस्ट्रा और बैंड अक्सर बजाया करते हैं और कम ही मौकों पर इसे गाया जाता है इसलिए संगीत राष्ट्रगान का सबसे जरूरी हिस्सा है। यह जीवन और गरिमा से भरपूर होना चाहिए। इसे इस तरह का होना चाहिए कि छोटे या बड़े आर्केस्टा और सेना के बैंड्स और पाइप्स, इसे बढिया ढंग से बजा सकें। इसे सिर्फ भारत में ही नहीं बजाया जाना है बल्कि, बाहर भी बजाया जाना है। इसलिए इस तरह का हो कि दोनों जगह इसे सराहा जा सके। ‘जन गण मन’ इन सारी कसौटियों पर खरा उतरता दिखाई देता है। पिछले कुछ महीनों में भारत और विदेशों में इसे बजाया भी गया है। हालांकि इसके मानक संस्करण हमारे पास नहीं हैं। लेकिन ऑल इंडिया रेडियों ने इसका प्रसारण किया है। जो शायद अच्छा संस्करण है।

जरूरी बातें

इस नोट में जवाहर लाल नेहरू उन बातों पर ध्यान देने को कहते जो बहुत जरूरी हैं। नेहरू लिखते हैं-
‘इस बारे में भी निर्देश दिया जाना जरूरी है कि किन उचित अवसरों पर राष्ट्रगान बजाया जाना है। इस मामले में कोई बाध्यता नहीं हो सकती, लेकिन अधिकारिक सलाह का अनुसरण किया जाना चाहिए। जैसा कि मुझे लगता है कि सिनेमा के शो के बाद राष्ट्रगान बजाना गैर-जरूरी है। इस मौके पर लोग जाने की तैयारी में होते हैं और राष्ट्रगान को उचित सम्मान नहीं दे पाते। ऐसा करने से राष्टगान की गरिमा बढ़ेगी, इसे बहुत हल्का नहीं बनाया जाना चाहिए। मैं इस सलाह से सहमत हूं कि फिल्म खत्म होने के बाद राष्ट्रध्वज दिखा दिया जाए।’
जवाहर लाल नेहरू के इस नोट ने जन गण मन को राष्ट्रगान बनाने में बड़ी अहम भूमिका निभायी। इसके बाद भी राष्ट्रगान पर चर्चा होती रही और 24 जनवरी 1950 को जन गण मन को राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार लिया गया।
ये पूरा नोट पीयूष बबेले की किताब ‘नेहरू मिथक और सत्य’ में दिया गया है।

Tuesday, March 5, 2019

भारत माता की जय को देशभक्ति समझने वालों को पहले पंडित नेहरू की इन बातों को पढ़ लेना चाहिए

इस समय देश में एक अलग माहौल बन गया है। पूरे देश को दो खांके में बांट दिया गया है-

देशभक्त और देशद्रोही।

जो भारत माता की जय नहीं बोलेगा, जो जय हिंद के नारे नहीं लगायेगा वो देशद्रोही है। अगर आपको देशद्रोही नहीं बोलना है तो आराम से ये नारे लगा दीजिये। 2014 के बाद राष्ट्रवाद सत्ता के गलियारे का मुख्य अंग बन गया है। इससे पहले राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रनिर्माण जैसी बातें होती थीं। इस राष्ट्रवाद को दिखाने के लिये तीन चीजों का सहारा लिया जाता है- भारत माता का नारा, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान।

लोगों को अब ध्यान रखना पड़ता है कि गलती से कहीं ये तीन चीजें करने से वो चूक न जायें। अब लोग अपने धर्म को भूलकर इस राष्ट्रवाद को याद रखना जरूरी समझते हैं। सरकार ने इस राष्ट्रवाद को लाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सरकार ने इस राष्ट्रवाद पर कई बड़े नियम बना डाले। उसके बाद तो पूरा देश उसी बाबत को दोहराने में लग गया। एक नेता, दूसरे नेता से लड़ने लगे क्योंकि वे भारत माता की जय नहीं बोल रहे थे। एक विधायक को तो सदन से ही निकाल दिया गया।
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जो ऐसा सोचते हैं कि भारत माता बोलने से राष्टभक्त होने का प्रमाण मिल जाता है। उन्हें जवाहर लाल नेहरू के इन बातों को पढ़ लेना चाहिये। उसके बाद शायद आप समझ जायें कि देशभक्ति क्या चीज है और आजादी क्या है? 1मार्च 1950 को जवाहर लाल नेहरू ने एक पत्र लिखा। पत्र देश के सभी मुख्यमंत्रियों के नाम था। नेहरू लिखते हैं-
‘हममें से कुछ लोगों की ये फितरत है कि वे भारत के मुसलमानों से देश के प्रति वफादारी साबित करने और पाकिस्तान समर्थक प्रवृत्तियों की निंदा करने की मांग करती हैं। इस तरह की प्रवृत्तियां निश्चित तौर पर गलत हैं और उनकी निंदा की जानी चाहिये। लेकिन मैं समझता हूं कि हर बार भारतीय मुसलमानों के वफादारी साबित करने पर जरूरत से ज्यादा जोर डालना गलत है। वफादारी किसी आदेश या भय से पैदा नहीं होती है। ये वक्त के सहज प्रवाह में अपने आप पैदा होती है और धीरे-धीरे न सिर्फ एक प्रेरक मनोभाव बन जाती है, बल्कि व्यक्ति को लगता है कि इसी में उसका भला है। हमें ऐसे हालात बनाने होंगे, जिसमें लोगों के अंदर इस तरह के मनोभाव पैदा हो सकें। किसी भी हाल में अल्पसंख्यकों की निंदा करने और उन पर दबाव बनाने से कोई फायदा नहीं होगा।’
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आज क्या हो रहा है?

आज देशभक्ति जबरदस्ती ठूंसने की बात कही जा रही है। आपको नौकरी करनी है तो भारत माता की जय बोलने होगी। आपको काॅलेज में पढ़ना है तो भारत माता की जय बोलना होगा। जवाहर लाल नेहरू इस भारत माता को भी समझते थे और भारत माता के नारे को भी। आज हम जानते ही नहीं है कि भारत माता है क्या? एक बार जवाहर लाल नेहरू ने भारत माता का मतलब समझाया था। 1920 का ये वाकया है। तब तक जवाहर लाल नेहरू किसान नेता बन चुके थे। वे पंजाब के गांव का दौरा कर रहे थे। एक गांव में जब जवाहर लाल नेहरू गये तो गांव के किसानों ने ‘भारत माता की जय’ के साथ उनका स्वागत किया। उन्होंने भी लोगों से बात करने से पहले भारत माता की जय का नारा लगाया।
उसके बाद नेहरू ने लोगों से पूछा कि आप जिसका जयकारा लगा रहे हैं वो भारत माता कौन है?
कुछ लोगों ने कहा कि धरती ही आपकी माता है। फिर कुछ लोगों ने कहा, ये नदी, पहाड़, खेत-खलिहान यही सब मिलकर भारत माता बनती है। तब नेहरू ने कहा-
‘‘ ये सब बातें जो आपने भारत माता के बारे में बताईं, वे हैं तो सही, लेकिन ये तो हमेशा से हैं। आखिर धरती को या नदी-पहाड़ों को तो आजादी नहीं चाहिए। आजादी तो इस धरती पर रहने वाले हम इंसानों को चाहिए। अंग्रेजी राज में जुल्म, गरीबी और भुखमरी का सामना तो आखिरकार हम भारत के लोग ही कर रहे हैं। अगर हम न हों तो इस धरती माता को भारत माता कौन कहेगा? आखिर हम जो भी कर रहे हैं, वो हम अपनी आजादी के लिए ही तो कर रहे हैं। इसलिये जब हम भारत माता की जय बोलते हैं तो हम भारत के 30 करोड़ लोगों की जय बोलते हैं। उन 30 करोड़ लोगों को आजाद कराने की जय बोलते हैं। इस तरह हम सब भारत माता का एक-एक टुकड़ा हैं और हमसे मिलकर ही भारत माता बनती है। तो जब भी हम ‘भारत माता की जय‘ बोलते हैं तो असल में अपनी ही जय बोल रहे होते हैं। जिस दिन हमारी गरीबी दूर हो जाएगी, हमारे तन पर कपड़ा होगा, हमारे बच्चों को अच्छे से तालीम मिलेगी, हम सब खुशहाल होंगे, उस दिन भारत माता की सच्ची जय होगी।’’
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ऐसा ही भारत जवाहर लाल नेहरू चाहते थे जिसकी तस्वीर महात्मा गांधी ने देखी थी। क्या आज देश वैसा है? क्या हम उनके नक्शे कदम पर चल पाये? जवाब ‘न’ में ही मिलेगा। तब के लोगों को दिशा देने के लिये बेहतरीन नेता मौजूद थे। जिनके हाथों में हमारा देश था, जिन्हें पता था कि इस देश को कितनी मुश्किलों से गुजरना पड़ा है। इसकी बानगी का एक बेहतरीन किस्सा है। विभाजन के बाद देश में दंगे-फसाद हो रहे थे। महात्मा गांधी जगह-जगह जाकर लोगों को समझा रहे थे। जवाहर लाल इलाहाबाद के गांव से गुजर रहे थे। उन्होंने देखा कि एक जत्था, मुसलमानों से लूटा हुआ माल लादकर जा रहा है। जब उस जत्थे ने नेहरू को देखा तो ‘महात्मा गांधी जिंदाबाद’, पंडित नेहरू जिंदाबाद’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाने लगे। जवाहर लाल नेहरू ये सुनकर भड़क पड़े और चिल्लाकर बोले-

‘‘हाथ में अपने ही भाइयों से लूटा हुआ माल देकर महात्मा गांधी और ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाते हुए शर्म नहीं आती। इन गंदे हाथों से बापू के नाम की मुठ्ठियां भांजते तुम्हारे हाथ नहीं कांपते।’’

वो जमाना ही और था। लोगों ने लूटपाट तो की थी लेकिन वे लुटेरे नहीं थे। देश के प्रधानमंत्री ने जब ऐसा कहा तो लोंगों ने लूट का माल रख दिया और माफी मांगी। अब का दौर ही अलग है। सरकार खुद ऐसे लोगों को बढ़ावा दे रही है। सरकार खुद भारत माता के नारों पर बहस करने में लगी हुई और देश का मुद्दा बनाने में लगी हुई है। भारत माता के नाम राष्ट्रवादी गुंडे बनाये जा रहे हैं जो हाथ में डंडे लिये तैयार रहते हैं। ऐसे लोगों को पता ही नहीं है कि ये मुल्क क्या है? ये मुल्क लोगों से है न कि जमीं से। जो लोगों को मारते हैं वो भारत माता की जय करने के काबिल ही नहीं है। वो लोगों को नहीं मार रहे हैं वो भारत माता को मारने की कोशिश कर रहे हैं।
जवाहर लाल नेहरू की ये बातें पीयूष बबेले की किताब ‘नेहरू मिथक और सत्य’ से लिये गये हैं।

Saturday, March 2, 2019

जब महात्मा गांधी ने इंदिरा और जवाहर लाल नेहरू के बीच सुलह करवाई थी

महात्मा गांधी, नेहरू परिवार के बड़े करीब थे। उनके सबसे प्रिय शिष्य नेहरू परिवार का बेटा था। वो बेटा जो विलायत और पश्चिमी सभ्यता का हिमायती था। जो आगे चलकर देश का नेतृत्व करने वाला था, जो आगे चलकर अपने बापू की मौत की खबर देने वाला था। महात्मा गांधी, नेहरू परिवार के कितने करीब थे। इस बात से पता चलता है कि आनंद भवन में महात्मा गांधी का भी एक कमरा था। वे अक्सर इलाहाबाद आते तो वहीं रूकते और बैठकों का दौर चलता। महात्मा गांधी नेहरू के लिये आदर्श थे और उनकी बेटी इंदिरा भी गांधी को देखकर ही बड़ी हो रही थी।

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इंदिरा गांधी को जवाहर लाल नेहरू ने पढ़ने के लिये विदेश भेज दिया। वहां उनकी एक लड़के से दोस्ती हुई, फिरोज गांधी। इंदिरा गांधी ने ऑक्सफोर्ड काॅलेज में एडमिशन ले लिया। इसलिये नहीं कि उनके पिता ने कहा था बल्कि वे उस शख्स के साथ रहना चाहती थी। जो उनके मां के बड़े करीब था। इंदिरा फिरोज को तब तक अपना मित्र की माना करती थीं। जब वे फिरोज के साथ समय बिताने लगीं तो दोस्ती प्यार में बदल गई। वो प्यार जो आगे जाकर पिता-पुत्री के बीच विरोध के रूप में सामने आने वाला था।

फिरोज-इंदिरा


फिरोज ने जब पहली बार इंदिरा गांधी से शादी का प्रस्ताव रखा। तब वे सिर्फ 16 साल की थीं। तब इंदिरा की मां कमला नेहरू ने मना कर दिया था। कमला का मानना था कि उनकी बेटी अभी बहुत छोटी है। 1939 में इंदिरा गांधी दोबारा लंदन गईं और फिरोज गांधी के कमरे केे पास ही अपना कमरा ले लिया। उसके 2 साल पहले ही फिरोज और इंदिरा गुपचुप तरीके से सगाई कर चुके थे। उस समय के बारे में पीएन हक्सर बाद में लिखते हैं- ‘ वे फिरोज और इंदिरा के लिये खाना बनाते थे। वे फिरोज के साथ खुश थीं। दोनों छोटे से कमरे में समय बिताते थे।’

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इंदिरा और फिरोज 1941 में डरबन होते हुये जहाज से भारत आये। इंदिरा सबसे पहले महात्मा गांधी से मिलने गईं। गांधी के आश्रम में वे सिल्क की साड़ी और लिपिस्टिक लगा कर गईं। जिसे महात्मा गांधी ने धोने को कहा और खादी की साड़ी पहनने को कहा। ये बात सुनकर इंदिरा गांधी का आश्रम से मोह भंग हो गया। उन्होंने महात्मा गांधी के आश्रम को गांधीवादी आडंबर का नाम दिया था। उन्हें लगता था कि बापू के पास देश के भविष्य का कोई खाका नहीं है।

नेहरू का विरोध


जवाहर लाल नेहरू फिरोज-इंदिरा के इस संबंध से खुश नहीं थे। इसलिये नहीं क्योंकि उनका धर्म अलग था। बल्कि उनका मानना था कि फिरोज और इंदिरा दोनों अलग सोच के हैं। नेहरू परिवार जिस सोच और पृष्ठभूमि में था, फिरोज उस दुनिया से अलग थे। जवाहर लाल नेहरू अपनी खानदानी इज्जत के लिये परेशान थे। उन्होंने तब इंदिरा गांधी को लिखा- ‘खराब स्वास्थ्य के बावजूद तुम्हारा यूरोप से वापस आना और अचानक शादी करना बेहद नासमझी की बात है।’

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पिता-पुत्री के संबंध जब खराब होने लगे। तब महात्मा गांधी को बीच में आना पड़ा। उन्हांेने जवाहर लाल नेहरू को समझाया- ‘फिरोज ने कमला नेहरू की बीमारी में उनकी सहायता की थी। वह उनके लिये पुत्र के समान था। यूरोप में इंदिरा की बीमारी के दौरान भी उसने मदद की थी। उन दोनों के बीच स्वभाविकता निकटता हो गई थी। उनको विवाह की स्वीकार्यता न देना निर्दयता होगी।’

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इसके बाद जवाहर लाल नेहरू मान गये और 26 मार्च 1942 को आनंद भवन में ही उनका विवाह हुआ। बाद में इंदिरा गांधी ने कहा- मैंने इस शादी को करके इस परिवार की सदियों पुरानी परंपरा को तोड़ा था। मेरी शादी के खिलाफ हर कोई था। लेकिन मेरे लिये ये जीत स्वतंत्रता संघर्ष के बराबर थी। लेकिन जल्दी ही ये दंपत्ति उदासी में आने वाले थे और वजह इंदिरा गांधी के पापू को बनना था।

शकुंतला देवी किसी गणितज्ञ से ज्यादा मां-बेटी के रिश्ते की कहानी लगती है

तुम्हें क्यों लगता है औरत को किसी आदमी की जरूरत है। एक लड़की जो खेलते-खेलते गणित के मुश्किल सवाल को झटपट हल कर देती है। जो कभी स्कूल नहीं गई ...