18 अप्रैल 1974
पटना का गांधी मैदान लोगों से खचाखच भरा हुआ है। गांधी मैदान ने ऐसी भीड़ इससे पहले न कभी देखी थी और न ही कभी देखने वाला था। ये जयप्रकाश नारायण का कद था जो इतनी भीड़ को ले आये थे। उसी मंच पर एक व्यक्ति और था जो करतब जुटाकर भीड़ जुटा लेने में माहिर था। वो इस भीड़ को देखकर असमंजस में था क्योंकि उसने न इतनी भीड़ को देखा था और न ही इतने लोगों के सामने बोला था। उस शख़्स का नाम है लालू प्रसाद यादव। उस दिन लालू यादव को भीड़ से प्यार हो गया था। लेकिन ये आंदोलन ऐसे ही नहीं बना था, जयप्रकाश नारायण ऐसे ही नही आये थे। पूरी बात जानने के लिए थोड़ा पीछे चलते हैं।
साल 1965
लालू यादव पटना के बिहार नेशनल काॅलेज में पहुंच गये। इस काॅलेज में वे छात्र जाते थे जो पढ़ने-लिखने में कमज़ोर थे। लालू यादव का भी मन पढ़ाई में नहीं लगता था। लालू यादव यहां राजनीति के मोह में नहीं गये थे, वे तो बस कुछ साल काॅलेज में बेपरवाही में गुज़ारना चाहते थे। लालू यादव उस समय काॅलेज में आये जब बी. एन. काॅलेज राजनीति का गढ़ बन चुका था। काॅलेज में एक दल संगठित हो रहा था जो गैर-कांग्रेसी हो। इनका बस एक ही मकसद था, जिस पार्टी का आज़ादी के बाद से पूरे देश पर बोलबाला रहा है, उस कांग्रेस को हराना है।
बिहार में पार्टी जातिवाद में बंधी थी। सवर्ण, हरिजन और मुस्लिम कांग्रेस के वोटर थे। जनसंघ, शहर और कस्बों में व्यापारी वर्ग का था। इन सबके अलावा एक वर्ग और उभरकर आ रहा था – समाजवादी धड़ा। लालू यादव भी इस छात्र राजनीति से दूर नहीं रह पाये। लालू यादव समाजवादी धड़े में शामिल हो गये। लालू यादव को समाजवाद की विचाराधारा का ‘स’ भी नहीं पता था। वे तो बस इसलिए जुड़ गये थे क्योंकि ये उनकी जाति की पार्टी थी। लालू यादव को इस राजनीति ने सिर्फ अवसर ही नहीं दिया, पैसा भी दिया।
समाजवादी नेता श्रीकृष्ण सिंह के बेटे नरेन्द्र सिंह उस समय सक्रिय समाजवादी कार्यकर्ता थे। नरेन्द्र को हर कोई जानता था। नरेन्द्र ने लालू यादव को सोशलिस्ट पार्टी की छात्र शाखा में शामिल कर लिया। बाद में यही नरेन्द्र सिंह लालू प्रसाद की कैबिनेट में मंत्री बनने वाले थे और फिर लालू को धोखा देकर नीतीश कुमार का हाथ मिलाने वाले थे। नरेन्द्र को एक पिछड़ी जाति के एक व्यक्ति की जरूरत थी और लालू यादव में उन्हें वो बात दिख रही थी। जो पिछड़ी जाति के वोट तो खींच ही सकता था और भाषण देने में भी निपुण था।
कुछ दिनों में लालू यादव समाजवादी पार्टी छात्र नेता के रूप में फेमस हो गये थे। उसके बाद 1967 में छात्र संघ के चुनाव हुए। सबका प्रयास सफल हुआ। ऐसा पहली बार हुआ था कि सत्ता के गलियारे में कांग्रेस की हार हुई हो। विश्वविद्यालय में कांग्रेस यूनियन हार गई और समाजवादी धड़े की जीत हुई। लालू यादव को पटना विश्वविद्यालय का महासचिव बना दिया गया। 1968 और 1969 में वे इसी पद पर रहे। लालू यादव इतने फेमस थे कि 1970 में छात्रसंघ के अध्यक्ष पर उन पर ही दांव चला गया। लेकिन सबकी सोच के विपरीत इस बार लालू यादव कांग्रेस के उम्मीदवार से हार गये। लालू यादव निराश हो गये और राजनीति छोड़कर नौकरी करने लगे।
साल 1973
पटना विश्वविद्यालय में एक बार फिर से गैर-कांग्रेसी दल इकट्ठा हुआ। सब कांग्रेस को हटाने की वकालत कर रहे थे। उन्हें संगठन के नेतृत्व के लिए एक जोशीला नेता चाहिए था जो पिछड़ी जाति से हो। लालू यादव को वापस बुलाया गया। लालू यादव ने राजनीति के लिए अपनी नौकरी छोड़ दी। इस आंदोलन में लालू यादव के साथ वे नेता शामिल थे जो उनके सबसे बड़े विरोधी होने वाले थे- सुशील मोदी और नीतीश कुमार।
जल्दी ही पटना विश्वविद्यालय राजनीति में झुलसने लगा। हर रोज प्रदर्शन और विरोध किए जाते। लालू यादव ने छात्रों के लिए मांग की। लालू यादव सबके दिलों में राज करने लगे। लालू यादव को अब छात्र संघ का अध्यक्ष बनना था लेकिन उन्होंने काॅलेज छोड़ दिया। अध्यक्ष बनने के लिए लालू यादव ने लाॅ काॅलेज में एडमिशन ले लिया। लालू चुनाव जीते और छात्रसंघ के अध्यक्ष बन गये। फरवरी 1974 में लालू यादव ने सभी काॅलेजों को बंद करने की घोषणा कर दी। उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष अब्दुल गफूर थे। उनके खिलाफ लोगों का गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था।
पूरे राज्य में छात्र आंदोलन ने गति पकड़ ली। विधानसभा का घेराव किया गया, जुलूस निकाले जाने लगे। जिसका नतीजा ये हुआ कि सरकार को कार्रवाई करनी पड़ी और लाठीचार्ज हुआ। जिसमें दर्जनों छात्र मारे गये और सैकड़ों छात्र गिरफ्तार हो गये लेकिन लालू यादव बच निकले। वे पुलिस को देखकर भाग गये थे। बस यहीं आंदोलन में नया मोड़ आ गया।
जेपी की एंट्री
जयप्रकाश नारायण पटना वापस लौट आये थे। छात्रों ने उनसे आग्रह किया कि आप इस आंदोलन का नेतृत्व करें। जेपी नहीं चाहते थे कि ऐसे आंदोलन में शामिल हों जो हिंसा में लिप्त है। जेपी ने छात्रों के सामने शर्त रखी कि मैं नेतृत्व तभी करूंगा जब तुम लोग अहिंसा की शपथ लोगे। छात्रों ने उनकी बात मान ली। जेपी इसलिए भी खुश नहीं थे कि क्योंकि इस संगठन का नेतृत्व लालू यादव कर रहे थे।
जेपी, लालू यादव को अविश्वसनीय व्यक्ति समझते थे। लालू यादव, जेपी के पैरों में गिर पड़े और बोले- आपको हमारा नेतृत्व करना पड़ेगा। यह एक आदमी के बारे में सोचने का समय नहीं है, देश के बारे में सोचिए। जेपी मान गये और फिर देश ने पटना के गांधी मैदान में जेपी का जादू देखा।
यह किस्सा संकर्षण ठाकुर द्वारा लिखी गई किताब 'द बिहारी ब्रदर्स' से लिया गया है।