Saturday, May 30, 2020

बेतालः डर का नामो-निशान नहीं है इस वेब सीरीज में।

सुरंग के बाहर कदम संभालकर रखना, उसकी नींद में कोई अड़चन न आएबेताल के श्राप ने उन्हें नष्ट कर दिया है और जब वो जागेंगे तो भूखे होंगे।

इसी संदेश के साथ शुरू होती है नेटफ्लिक्स पर आई वेब सीरीज, बेताल। बेताल वैसे तो हाॅरर वेब सीरीज है लेकिन जब आप देखेंगे तो निराश ही होंगे। पता नहीं क्यों भारतीय सिनेमा हाॅरर के मामले में सफल नहीं हो पाता है? हाॅरर के नाम पर कहानी जंगल, भूतिया हवेली और पुराने किस्सों में सिमट कर रह जाती है। बेताल सीरीज भी डराने में नाकाम रही और कहानी भी ज्यादा प्रभाव नहीं डाल पाती है।

कहानी


ये कहानी है छत्तीसगढ़ के एक आदिवासी गांव निलजा की। जहां कांट्रेक्टर अजय मुदलावन नेशनल हाइवे बना रहा है। हाइवे के बीच में एक बंद सुरंग आ जाती है जिसको मुदलावन खोलना चाहता है। गांव वाले इसका विरोध कर रहे हैं। गांव वालों का मानना है कि ऐसा करने से बहुत बड़ा संकट आ जाएगा। सुरंग को खुलवाने के लिए अजय मुदलावन स्पेशल फोर्स सीआईपीडी की बाज स्क्वाड की लीडर त्यागी से बात करता है। त्यागी अजय मुदलावन से पैसे लेकर ये काम करती हैं। त्यागी अपनी फोर्स को बताती है कि यहां के लोग नक्सली हैं और वे विकास नहीं होने देना चाहते हैं।


बाज स्क्वाड को लीड करते हैं विक्रम सिरोही। विक्रम सिरोही जो त्यागी मैम जैसा बनना चाहता है। उसे एक आॅपरेशन बार-बार याद आता है जब उसने एक मासूम की जान ले ली थी। बाज स्क्वाड उस गांव को खाली करा देती है और सुरंग के बाहर जो खड़े रहते हैं उन पर फोर्स हमला कर देती है। उसके बाद सुरंग को खोल दिया जाता है। यहीं से दिक्कत शुरू हो जाती है। जो भी सुरंग में जाता है मारा जाता है या घायल हो जाता है। उसमें से कुछ शैतान निकलते हैं जो 17वीं शताब्दी की बंदूकों से गोली चलाते हैं। सबको लगता है कि ये नक्सली हैं। उनसे बचकर वे एक बड़े-से घर में छिप जाते हैं। यहां उनको सुबह तक का इंतजार करना है। उस एक रात में क्या-क्या होता है? सिरोही उन शैतानों से बचे हुए लोगों को बचा पाता है या नहीं? उन शैतानों को सिरोही कैसे खत्म करता है? ये सब जानने के लिए आपको ये वेब सीरीज देखनी होगी।

इतना जानकर आपको ये तो समझ आ ही गया होगा कि कहानी का प्लाॅट कमजोर है। वेब सीरीज में अगर कुछ अच्छा है तो थोड़ा लुक। जिससे थोड़ा-थोड़ा हाॅलीवुड वाला फील आता है। चाहे वो राक्षस को जिस तरह से दिखाया हो या रात वाला सीन। ये सब कुछ देखने में अच्छा लगता है। मगर डराने के मामले में ये वेब सीरीज पूरी तरह से नाकाम रही है। चाहे फिर पुरानी हवेली दिखाई हो, डरावना जंगल दिखाने की कोशिश की हो, शैतान के काटने से उसके जैसा ही बनने की कहानी हो या फिर अंग्रेजों के शैतान बनने की बात हो। इतना सब कुछ दिखाने के बावजूद ऐसे मौके कम ही आएंगे जब आप डर जाएंगे।


कुछ-कुछ जगह लाॅजिक समझ नहीं आता है जैसे कि वो कुछ लोगों को काटता है और कुछ के दिमाग पर असर डालता है। हद तो तब हो जाती है जब अजय मुदलावन शैतान से एक डील करता है और शैतान मान भी जाता है। फिर ये कि ठेकेदार फोर्स से ऐसे बात करता है जैसे वो ही इनका लीडर हो और वो मान भी लेते हैं। मतलब कहानी में कभी भी कुछ भी दिखा दिया गया है। यही सब इस वेब सीरीज को खराब बनाते हैं।

किरदार

एक्टिंग की बात करें तो विक्रम सिरोही का रोल निभाया है विनीत कुमार ने। विनीत कुमार इससे पहले गैंग्स आॅफ वासेपुर और मुक्काबाज में भी काम किया है। विनीत कुमार की डायलाॅग डिलीवरी और एक्शन अच्छा है लेकिन एक्सप्रेशन के मामले में मार खा जाते हैं। उनके सामने शैतान है लेकिन उनके चेहरे पर डर नहीं दिखाई देता है। इसके अलावा अहाना कुमरा विनीत कुमार की साथी आहलुवालिया के रोल में हैं। अहाना को कम सीन मिले हैं लेकिन जब भी सीन में दिखाई देती हैं अच्छा दिखाई देती हैं। हालांकि उनके होने या न होने से कहानी और पर कोई ज्यादा असर नहीं पड़ता है। इसके अलावा त्यागी के रोल में सुचित्रा पिल्लई, काॅन्टैक्टर अजय मुदलावन के रोल में जीतेन्द्र जोशी और आदिवासी पुनिया का रोल में दिखीं मनर्जी। इन सबने ठीक-ठीक काम किया है।


चार एपिसोड में बनी बेताल को डायरेक्ट किया है पैटिक ग्राहम और निखिल महाजन ने। इसके प्रोड्यूसर हैं ब्लमहाउस और रेड चिली एंटरटेनमेंट। रेड चिली एंटरटेनमेंट शाहरूख खान की कंपनी है। नेटफ्लिक्स पर आई इस वेब सीरीज को अच्छे कंटेंट के लिए नहीं, बस देखने के लिए देख सकते हैं। सीजन का अंत कुछ ऐसा दिखाया गया है जिससे अगला सीजन को बनाया जा सके। हालांकि इसकी उम्मीद कम है और दर्शक भी एक और बुरी हाॅरर वेब सीरीज  नहीं देखना चाहेंगे।

Friday, May 29, 2020

सेवन ईयर्स इन तिब्बतः जब तिब्बत वहां के लोगों का हुआ करता था, तब की कहानी है ये।

सेवन ईयर्स इन तिब्बत कहानी तो है एक शख्स की। जो अपने जिंदगी के सात साल तिब्बत में बिताता है। उस दौरान तिब्बत में क्या-क्या होता है? वो शख्स तिब्बत को कैसे देखता है? उसने इन सात सालों में क्या किया? मगर ये सिर्फ इतनी-सी कहानी नहीं है। ये कहानी है तिब्बत की खूबसूरती की, वहां के शांतिप्रिय लोगों की जो हथियार नहीं उठाते और ये कहानी है तिब्बत को कुछ और बनाने की। यही सब इस मूवी में है। ये मूवी हेनरिच हैरेर की बुक सेवन ईयर्स इन तिब्बत पर बेस्ड है। इसके अलावा ये मूवी है दो लोगों के बीच बने एक विश्वास की। 1997 में रिलीज हुई ये मूवी अब आप नेटफ्लिक्स पर देख सकते हैं।


कहानी


सेवन ईयर्स ने तिब्बत में 1939 से 1952 के बीच की कहानी है। हेनरिच हैरेर जो आस्ट्रिया से हैं वो ब्रिटिश इंडिया के नंगा पर्वत की चढ़ाई करने जा रहा है जबकि उसकी पत्नी प्रेग्नेंट हैं। वो अपने कुछ साथियों के साथ उस पहाड़ को चढ़ने जाते हैं लेकिन आखिरी बेस कैंप से तूफान की वजह से लौटना पड़ता है। वहां से उनको विश्वयुद्ध की वजह से देहरादून के ब्रिटिश कैंप में रखा जाता है। यहीं हेनरिच को पता चलता है कि उसकी वाइफ को बेटा हुआ है और वो उसे तलाक देना चाहती है। उस कैंप से कई बार भागने की कोशिश करता है मगर हर बार पकड़ा जाता है। आखिरकार अपने कुछ साथियों के साथ कैंप से निकलने में कामयाब हो जाता है। बाकी सब पकड़ जाते हैं सिवाय हेनरिच और उसके साथी के। दोनों तिब्बत जाते हैं। तिब्बत में बाहर के लोगों को आना प्रतिबंध है इसलिए दोनों को वहां नहीं आने दिया जाता।


लोगों से छुपते हुए दोनों तिब्बत की राजधानी ल्हासा पहुंच जाते हैं। जहां 13वें दलाई लामा रहते हैं, जिनकी पूरा तिब्बत पूजा करता है। वो तिब्बत के लीडर हैं और यहां उनका ही राज चलता है। दोनों को यहां रहने की परमिशन मिल जाती है। दलाई लामा से जब हेनरिच मिलते हैं तो देखते हैं कि वो तो एक बच्चा है। वो हेनरिच से बहुत कुछ सीखना चाहता है, बहुत कुछ पूछता है। दोनों रोज मिलते हैं, बात करते हैं। वो क्या-क्या बात करते हैं, दलाई लामा क्या सीखते हैं? वो सब आपको मूवी देखने पर पता चलेगा। 1949 में चीन तिब्बत पर अटैक कर देता है। पूरा तिब्बत चीनी सैनिकों से भर जाता है।



तिब्बत के लोगों को अपना पवित्र शहर ल्हासा छोड़ना पड़ता है। मगर दलाई लामा वहीं रहते हैं। हेनरिच का क्या होता है? वो तिब्बत में और रूकता है या अपने बेटे के लिए आस्ट्रिया लौट जाता है? ये जानने के लिए आपको ये मूवी देखनी होगी। मूवी में तिब्बत की स्टोरी 1952 तक ही दिखाई है। ये वही दलाई लामा हैं जो अब भारत के धर्मशाला में रहते हैं। 1959 में वे चीन से भारत आए थे, तब से वे यहीं रहते हैं। इस मूवी में हिमालय को दिखाया है। पहाड़ पर चढ़ना कितना कठिन होता है ये आपको इस मूवी में देखने को मिलेगा। मगर वो नजारे बेहद खूबसूरत लगते हैं चाहे वो बर्फ से ढंके पहाड़ हों या पहाड़ से घिरा तिब्बत।

ये सुंदर दृश्य भी इस मूवी के लिए आकर्षण पैदा करते हैं। इन सबके अलावा ये मूवी तिब्बत के बारे में बताती है। वहां के कल्चर, वेश-भूषा, तौर-तरीकों के बारे में पता चलता है। उस समय का तिब्बत कैसा था? सब कुछ मूवी देखने पर कुछ-कुछ समझ में आता है। इस मूवी में सबसे अच्छा सीन वो लगता है जब दलाई लामा, हेनरिच से बात करते हैं। हेनरिच उनको कुंदन कहता, दोनों एक-दूसरे पर यकीन करते थे। जब वो आखिरी बार मिलते हैं तो वो सीन इमोशनल कर देता है। हालांकि इतना भी इमोशनल नहीं कि आप रोने लगे, बस थोड़ा बुरा लगता है।

किरदार


हेनरिच का रोल निभाया ब्रैड पिट ने। ब्रैड पिट ने इसमें कमाल का काम किया है। वो सीन में होते हैं तो किसी और को देखने का मन नहीं करता। इसके अलावा दलाई लामा का रोल में रहे जेमयांग वांगचुक। वांगचुक ने भी अच्छा काम किया है। वो बच्चे और धर्मगुरू दोनों हैं। वो कभी गंभीर बातें करते तो कभी बिल्कुल बच्चों की तरह लगते। इसी वजह से वांगचुक दलाई लामा के रूप में अच्छे दिखते हैं। इसके अलावा भारतीय अभिनेता डेनी डेनजोंगपा भी मूवी में हैं। जो मूवी में बहुत कम ही दिखाई देते हैं।


ब्रैड पिट।

मूवी का कैमरा वर्क बहुत शानदार है। जिसकी वजह से ये मूवी बेहद अच्छी लगती है। सिनेमेटौग्राफी का काम किया है राॅबर्ट फ्रेज ने। 136 मिनट की इस मूवी का स्क्रीनप्ले का काम किया है बैकी जाॅनस्टन ने और डायरेक्ट किया है जीन जैक्यूस एनौड ने। ये मूवी बताती है कि हमारी जिंदगी एक यात्रा है जिसमें हम बहुत कुछ देखते हैं। इसमें एडवेंचर, पैसन, इमोशन होता है। आप ये मूवी देखेंगे तो समझ जाएंगे मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं?

Thursday, May 21, 2020

ताजमहल 1989ः किस्से पुराने हैं इसलिए भी अच्छे लगते हैं बिल्कुल नोस्टाल्ज्यिा।

‘ये सुबह को गुलाबी, दिन में सफेद और रात में सुनहरा नजर आता है।’ 

ये डायलाॅग है नेटफ्लिक्स पर आई एक वेब सीरीज ‘ताजमहल 1989’ का। प्यार कैसा होना चाहिए? ये इस सीरीज में अलग-अलग कहानियों से बताने की कोशिश की है। वैसे तो इन कहानियों में दिखाया गया प्रेम अच्छा लगता है लेकिन उस समय का प्रेम कुछ आज की तरह ही दिखाया गया है जो थोड़ा फसाना है। इसके बावजूद ये वेब सीरीज देखने लायक है। अगर आप नब्बे के दशक के हैं तो ये सीरीज आपको पक्का अच्छी लगेगी।

कहानी


ताजमहल 1989 में लखनऊ विश्वविद्यालय कैंपस के इर्द-गिर्द बुनी हुई कुछ कहानियां अलग-अलग चलती हैं। इस वेब सीरीज में उस समय के समाज को दिखाने की कोशिश की गई है। जिसमें वे बहुत हद तक सफल भी रहे हैं। आज जब वो दौर नहीं है तो उस समय को सिनेमा में देखना सुकून देता है। वो स्कूटर, रेडियो, रिक्शा, साईकिल और वो टेलीफोन। सब उस समय को याद दिलाते हैं, इन सबको इस वेब सीरीज में खूबसूरती से दिखाया गया है। वैसे तो ये कहानी है दो जोड़ों की। जो एक-दूसरे से बहुत प्यार करते हैं। दोनों जोड़ों ने लव मैरिज की है और वो भी इंटरकास्ट। मुसलमान लड़के ने हिन्दू से शादी की है और हिन्दू लड़के ने मुसलमान से शादी की है। इंटरकास्ट की वजह से उनके जीवन में कोई समस्या नहीं आती है।


ये देखना अच्छा तो लगता है और सुखद भी। मगर 1989 में भी ऐसा हो सकता है ये मान लेना थोड़ा मुश्किल है। अख्तर बेग और सरिता एक-दूसरे से प्यार करते हैं। सरिता को शिकायत है क्योंकि वो उनके लिए समय नहीं निकालती है। सरिता एक जगह दर्शकों से कहती है, ये कब पता चलता है कि प्यार करने की उम्र निकल गई’। वहीं अख्तर बेग जो लखनऊ यूनिवर्सिटी में फिलाॅसफी के प्रोफेसर हैं और जिनको शायरी से बहुत प्यार है। अख्तर बेग के प्यार के लिए मानी हैं कि लव इज म्यूटेटिंग वायरस। ये किसी उम्र में समझ न आने वाली चीज है। वेब सीरीज मे ह्यूमर कूट-कूट के भरा पड़ा है। एक तरफ अख्तर बेग और सरिता की जोड़ी है तो दूसरी तरफ अख्तर के दोस्त सुधाकर मिश्रा और उनकी बीवी मुमताज की जोड़ी है।

सुधाकर की बीवी मुमताज कभी एक सेक्स वर्कर हुआ करती थीं, उस काम से निकाला सुधाकर ने। इसके बावजूद दोनों ने शादी नहीं की। सुधाकर, अख्तर बेग के साथ पढ़ता था और फिलाॅसफी में गोल्ड मेडलिस्ट भी था। सुधाकर अपने पिता के पुश्तैनी सिलाई की दुकान को चलाता है। कई सालों के बाद दोनों की एक मुशायरे में मुलाकात होती है। इसके बाद तो दोनों का रोज का उठना-बैठना होता है। उन दोनों की बातचीत को सुनना बहुत अच्छा लगता है। दोनों शराब पीते हुए एक-दूसरे को अपनी परेशानियां बताते हैं। उसी बातचीत में अख्तर बताता है कि सरिता उससे तलाक चाहती है और सुधाकर उसे ताजमहल घुमा ले जाने की बात करता है। अख्तर बेग तो ताजमहल ले जाता है लेकिन एक ताजमहल सुधाकर अपनी मुमताज के लिए भी बनाता है। वो इस सीरीज का सबसे खूबसूत सीन है। जब सुधाकर अपने बीवी को नए घर ले जाता है और उसके दरवाजे पर लिखता है मुमताज महल। जो मुस्कान उस समय मुमताज के चेहरे पर आती है वही इस सीन को देखने वाले दर्शक के चेहरे पर भी होगी।


इन सबके अलावा कुछ कहानियां और हैं जो साथ-साथ चलती हैं। जिसमें चुनाव है, अफेयर है, काॅलेज का प्यार और दोस्ती है। इसमें एक सीन में एक जगह डायलाॅग है, प्यार में एक मोड़ ऐसा आता है। जब आपको लगता है कि आपने इसको चुना ही क्यों? ये आज के दौर के प्यार की कहानी है या यूं कहें कि युवाओं को जब ब्रेकअप होता है तो वे यही सोचते हैं। पति-पत्नी के बीच होने वाले संवाद बहुत अच्छे हैं। चाहे वो प्यार के संवाद हो या एक-दूसरे से गुस्से और लड़ाई के। वेब सीरीज का नाम ताजमहल है तो कहानी में प्यार तो होना ही था। प्यार पर इसमें बहुत कुछ कहा गया है और दिखाया गया है। नौजवान प्यार के बारे में क्या सोचते हैं और शादीशुदा के लिए प्यार का क्या मतलब है?

किरदार


अख्तर बेग का किरदार निभाया है नीरज काबी ने। नीरज काबी को इससे पहले सेक्रेड गेम्स और हाल में आई पाताल लोक में अच्छा काम किया है। प्रोफेसर के रोल में नीरज काबी ने क्या खूब काम किया है। रोमांटिक अंदाज में बातें करने वाले इस रोल में नीरज काबी खूब फबते हैं। अख्तर बेग की पत्नी के किरदार में रहीं गीतांजलि कुलकर्णी। गीतांजलि ने भी अपना रोल बहुत अच्छे से निभाया है। सुधाकर मिश्रा के किरदार में दिखे दानिश हुसैन और मुमताज का किरदार निभाया है शीबा चड्ढा ने। लखनउ के उस समय के परिवेश को वेब सीरीज को दिखाने की कोशिश की गई है। उस समय के मुशायरे और बोलने के नवाबी अंदाज देखने को मिलता है। सफदर, हाशमी, इमरोज और गालिब का भी जिक्र आता है।


नेटफ्लिक्स पर आई ताजमहल 1989 वेब सीरीज के सात एपिसोड हैं। ताजमहल 1989 को डायरेक्ट किया है पुष्पेन्द्र नाथ मिसरा ने। लखनऊ की कहानी आकर आगरा में ताजमहल में आकर खत्म होती है। जिस प्रकार ये खत्म होती है वो थोड़ा और अच्छा हो सकता था बाकी ये वेब सीरीज देखने लायक है। वेब सीरीज का संगीत याद हो न हो लेकिन सुनने में अच्छा बहुत लगता है। अगर आप इस सीरीज को देखेंगे तो मेरे ख्याल से सुकून ही मिलेगा।

Monday, May 18, 2020

‘पाताल लोक’ अच्छे और बुरे से बहुत आगे की बात है, कुछ अलग ही है ये

‘ये जो दुनिया है न! ये एक नहीं तीन दुनिया है स्वर्ग लोक, धरती लोक और पाताल लोक’।


व्हाट्सएप्प के एक मैसेज से शुरू होती है पाताल लोक। जब आप कुछ देख रहे हों और आप बार-बार आगे क्या होने वाला हो? उसका अनुमान लगा रहे हो लेकिन निकले कुछ और। तो वो अच्छा सिनेमा ही माना जाता है। अमेजन प्राइम पर एक क्राइम-थ्रिलर वेब सीरीज आई है जो अच्छे और बुरे सिनेमा से कहीं आगे हैं। एक बेहतर सिनेमा क्या होता है ये पाताल लोक देखकर समझ आता है। हमारे आसपास जो कुछ भी होता है उसके बारे में सबको पता है लेकिन सिनेमा में उसको पूरी तरह से दिखाने की कोशिश कम ही की जाती है। इस समाज के कुछ ऐसे ही पहलू को दिखाने की कोशिश करती है पाताललोक।

कहानी


देश के एक नामी पत्रकार को मारने की साजिश के लिए चार लोगों को पुलिस रास्ते में ही गिरफ्तार कर लेती है। इस केस को इंचार्ज बनाया जाता है आउटर जमुना पार के इंस्पेक्टर हाथी राम को। हाथी राम जो थाने को पाताल लोक कहता है। जो खुद से परेशान है और कुछ करना चाहता है। जिसे पहली बार इतना बड़ा केस मिला है और इसको पूरा करना चाहता है। बस इसी केस की कड़ी को पूरा करने की कहानी है पाताल लोक। पाताल लोक की कहानी एक पत्रकार की हत्या की साजिश और उसे साॅल्व करने की कहानी है। मगर ये सिर्फ ऊपर-ऊपर की कहानी है, असल कहानी तो कुछ और ही है। कहानी तो किसी और की है, साजिश तो कुछ और है। जिसके लिए कहानी बार-बार दिल्ली, चित्रकूट और पंजाब में जाती-रहती है। पाताल लोक की असल कहानी क्या है? इन सबके लिए तो आपको पाताललोक देखनी पड़ेगी।


पातालोक सिर्फ हाथीराम, संजय मेहरा और विशाल त्यागी की कहानी नहीं है। ये कहानी है इस समाज की, जिसमें हमारे आसपास कुछ न कुछ होता रहता है। एक दलित नेता जो अपनी गाड़ी में गंगाजल इसलिए रखता है क्योंकि दलित के घर से आने के बाद उसी से नहाना होता है। अगर पत्रकार उस खबर को छाप दे तो पत्रकार को आॅफिस तोड़ दिया जाता है। ये कहानी है कबीर एम की जो है तो मुसलमान लेकिन उसे उसके पिता ने मुसलमान नहीं बनने दिया। क्योंकि मुसलमान होने पर उसे मारा जा सकता है। एक जगह कबीर के पिता हाथीराम से कहते हैं, मैंने तो उसे मुसलमान नहीं बनने दिया और आपने उसे जिहादी बना दिया। पाताल लोक हथौड़ा त्यागी की भी कहानी है जो विशाल से हथौड़ा त्यागी बना। जिसे किसी इंसान से नहीं कुत्तों से प्यार है। जो कुत्तों से प्यार करता है वो उनको अच्छा समझता है।

धर्म, जाति और राजनीति कितनी हद गिर सकती है ये सब कुछ इसमें दिखाने की कोशिश की गई है। मीडिया के अंदर और बाहर की कहानी को भी पाताल लोक अच्छी तरह से दिखाती है। एक जगह इंस्पेक्टर हाथीराम और संजय बात करते हैं। जिसमें संजय इंस्पेक्टर से कहते हैं, मीडिया को किसी की परमिशन की जरूरत नहीं है। इस पर हाथीराम कहते हैं, आप भूल रहे हैं केस पुलिस साॅल्व करती है, मीडिया नहीं। ये डायलाॅग आज की पत्रकारिता की सच्चाई को बताती है। ऐसा ही कुछ मीडिया भी करती है कोर्ट में केस साॅल्व होने से पहले मीडिया में उसका पंचनामा हो जाता है। मीडिया क्या दिखाता है इसको भी पातालोक बखूबी बताता है। एक जगह डायलाॅग है जहां चित्रकूट के पत्रकार दिल्ली के पत्रकार से कहते हैं, न्यूज चैनल इंडिया को दिखाते हैं, हिन्दुस्तान को नहीं। ये बात जब आप सुनेंगे तो लगता है कि कहीं न कहीं ये सच भी है।


इन सबके अलावा कहानी बाप-बेटे के रिश्ते की भी है। जो हाथीराम और उसके बेटे के माध्यम से दिखाया गया है। हाथीराम अपने बेटे को अच्छी जगह पढ़ाता है लेकिन वो अपने दोस्तों के साथ पढ़ना चाहता है। यहीं से दोनों से के बीच रिश्ते बिगड़ जाते हैं। हाथीराम उस सम्मान के लिए भी इस केस को साॅल्व करना चाहता है। पाताल लोक सिर्फ एक नजरिए से बनाया गया सिनेमा नहीं है। बहुत सारे लोगों की और बहुत सारे पहलुओं को दिखाता है पाताल लोक। वेब सीरीज अच्छी बात ये है कि इसमें समय बहुत होता है जिससे आप बहुत कुछ दिखा सकते हैं। इसमें चुनौती भी होती है क्योंकि दर्शक को बांधे रखना भी बहुत जरूरी होता है। गाली और सेक्स सीन के बावजूद सारा फोकस उस पर नहीं है।

किरदार


इस वेब सीरीज की कहानी जितनी दमदार है एक्टिंग भी उतनी ही शानदार की है। सबसे बड़ी बात इसमें कोई बड़ा एक्टर नहीं है। सब कहीं न कहीं सपोर्टिंग एक्टिंग करते हुए देखे गए हैं। हाथीराम के किरदार में हैं, जयदीप अहलावत। जयदीप ने कमाल ही एक्टिंग की है, पूरी कहानी उनके इर्द-गिर्द ही चलती-रहती है। इसके अलावा सबसे ज्यादा प्रभाव डाला है अभिषेक बनर्जी ने। अभिषेक ने हथौड़ा त्यागी का किरदार निभाया है। पूरी वेब सीरीज में बहुत कम बोले हैं लेकिन अपने एक्सप्रेशन से सबको हैरत में डाल देते हैं। उनको एक्सप्रेशन से ही लगता है कि वे विलेन या कोई डाॅन है। इसके लिए उनकी तारीफ होनी चाहिए। इसके अलावा पत्रकार संजय मेहरा के किरदार में रहे नीरज काबी। नीरज काबी ने भी अच्छी एक्टिंग की। इसके अलावा गुल पनाग, इश्वाक सिंह, विपिन शर्मा, आकाश खुराना और स्वस्तिका मुखर्जी ने भी अच्छा काम किया।


पाताल लोक को बनाने का काम किया है अविनाश अरुण और प्रोसित ने। इसकी कहानी लिखी है सुदीप शर्मा ने और इसकी प्रोड्यूसर हैं अनुष्का शर्मा। फिल्लौरी, परी और एनएच 10 के बाद अनुष्का शर्मा के नाम एक और अच्छा सिनेमा जुड़ गया है। पाताल लोक के आने के बाद कहा जा सकता है कि बहुत दिनों के बाद एक अच्छा सिनेमा आया है। 9 एपिसोड की ये वेब सीरीज को आप अमेजन प्राइम पर देख सकते हैं।

Friday, May 15, 2020

मिसेज सीरियल किलरः वही घिसा-पिटा काॅन्सेप्ट जिसे हम कई बार देख चुके हैं

ये कहानी अब खत्म होने वाली है, जैसे हमने सोचा वैसे नहीं।


मनोज वाजपेयी अच्छे एक्टर हैं। माना जाता है कि वो जिस मूवी में होंगे वो अच्छी ही होगी। मगर मिसेज सीरियल किलर मूवी में न तो वो अच्छे दिखे और न ही मूवी। सस्पेंस-थ्रिलर के नाम पर ये वही घिसी-पटी स्टोरी है जो हम कई बार देख चुके हैं। मूवी देखने के बाद आपको अच्छी और बुरी फिल्म में अंतर समझ में आ जाएगा। नेटफ्लिक्स पर 1 मई 2020 को रिलीज हुई इस मूवी में मनोज वाजपेयी, जैक्लीन फर्नांडिस और मोहित रैना मुख्य भूमिका में हैं। डायरेक्शन से लेकर म्यूजिक तक सारे काम शिरीष कुंदर ने खुद किए हैं।

कहानी


एक हिल स्टेशन पर रहने वाले नामी गायनोलाॅजिस्ट डाॅ. मृत्युंजय मुखर्जी अपनी पत्नी सोना के साथ रहते हैं. डाॅक्टर को पुलिस छह लड़कियों की आॅनर किलिंग के मामले में गिरफ्तार कर लेती है। इंस्पेक्टर इमरान शाहिद के सबूतों से सबको लगता है कि मृत्युंजय मुखर्जी ने ही ये काम किया है। डाॅक्टर की पत्नी सोना को अपना पति निर्दोष लगता है। उसे ये इंस्पेक्टर की चाल लगती है जो उसका कभी बाॅयफ्रेंड था। सोना अपने पति को बचाने के लिए कुछ भी कर सकती है और वैसा ही कुछ करती भी। जिससे उसका पति जेल से बाहर आ जाता है। उसके बाद जो मूवी में होता है उसे ही संस्पेंस का नाम दिया गया है। आगे क्या होता है? इसके लिए आपको मूवी देखनी होगी। फिर भी मैं इतना तो बता ही देता हूं कि इतना कुछ संस्पेंस नहीं होता है जो चौंका दे।


मूवी बनाई तो गई मर्डर मिस्ट्री पर लेकिन इसमें कुछ मिस्ट्री कहीं नही दिखाई देता। कहानी जिस तरह से शुरू होती है वो थोड़ा रोमांच पैदा करता है लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है ग्राफ नीचे गिरता चला जाता है। मूवी खत्म होने से बहुत पहले ही समझ आ जाता है कि ये हत्याएं किसने की हैं। मूवी खत्म होने पर आप निराश ही होंगे। डायलाॅग भी कुछ खास नहीं हैं जो दर्शकों पर प्रभाव छोड़ सकें। गाने भी ऐसे जो मूवी खत्म होने के बाद आप भूल जाएंगे। मूवी में अगर कुछ अच्छा है तो पहाड़ और जंगलों के नजारे। इसके अलावा तो सब कुछ समय की बर्बादी लगता है।

किरदार


गायनोलाॅजिस्ट डाॅ. मृत्युंजय मुखर्जी के किरदार में हैं मनोज वाजपेयी। मनोज वाजपेयी जिस एक्टिंग के लिए सराहे जाते हैं वो इसमें नहीं दिखी। न उनका किरदार जमता है और उनकी एक्टिंग। ऐसा लग रहा था कि वे बुरी एक्टिंग की एक्टिंग कर रहे हों। मुझे याद नहीं मैंने कब मनोज वाजपेयी की इतनी खराब एक्टिंग देखी थी। मेरी तरह कई लोगों ने इस मूवी को मनोज वाजपेयी की वजह से देखी होगी। उन सबको ये मूवी और मनोज वाजपेयी निराश करते हैं।


डाॅ. मृत्युंजय मुखर्जी की पत्नी सोना के किरदार में हैं जैक्लीन फर्नांडिस। जैक्लीन इस मूवी में कुछ खास कमाल नहीं कर पाईं। उनकी एक्टिंग इस मूवी में भी खराब ही है। इसके अलावा इंस्पेक्टर इमरान शाहिद का किरदार निभाया है मोहित रैना ने। मोहित रैना की हाल ही में आई बेब सीरीज भौकाल मुझे अच्छी लगी थी। इस मूवी में मोहित रैना ज्यादा अच्छे तो नहीं लेकिन ठीक-ठीक काम किया है। उनकी एक्टिंग इतनी बुरी नहीं लगती जितनी मनोज वाजपेयी और जैक्लीन की लगती है।

वैसे तो ये मूवी अच्छी नहीं है और समय की बर्बादी है। फिर भी अगर आप घर पर बोर हो रहे हैं तो इसमें टाइम खपा सकते हैं। ये मूवी कुछ नहीं तो पौने दो घंटे का टाइमपास तो करा ही देगी। अगर आपके पास करने को बहुत कुछ है तो इसको देखने का सोचिए भी मत। समय बर्बादी के साथ दिमाग भी खराब करती है ये मूवी।

Sunday, May 10, 2020

म्यूजिक टीचर: इस मूवी से प्यार होना तो बनता है

‘जो ख्वाहिशें पूरी ही नहीं की जा सकती, उनका इंतजार करना कितना मुश्किल होता होगा’।

हर किसी की जिंदगी में कुछ न कुछ ऐसा होता है जो एक टीस बनकर रह जाता है, जिसे वो याद नहीं करना चाहता। ऐसी टीस कुछ ख्वाहिशें, इंतजार के रूप में बनी रहती है। ये इंतजार कितना बुरा और नाखुश करने वाला हो सकता है यही कुछ बताती है ये मूवी। म्यूजिक टीचर, ख्वाहिश और इंतजार के बीच घूमती है। ख्वाहिश पूरी होती या इंतजार, इसके लिए तो आपको ये मूवी देखनी चाहिए।

कहानी


म्यूजिक टीचर, वैसे तो दो लोगों की कहानी है। बेनी माधव सिंह जो एक म्यूजिक टीचर हैं और मुंबई जाकर फिल्मों में गाना चाहते हैं। पिता के गुजरने की वजह से उसे अपने गांव लौटना पड़ता है। यहां रहकर वो आसपास म्यूजिक सिखाता है। म्यूजिक टीचर का किरदार निभाया है मानव कौल ने। दूसरा मुख्य कैरेक्टर है, ज्योत्सना राॅय। ज्योत्सना, बेनी से म्यूजिक सीखती है। सिखाते-सिखाते कब ज्योत्सना जुनैई बन जाती है पता ही नहीं चलता। दोनों के बीच प्यार हो जाता है। प्यार ऐसा कि दिल खुश हो जाता है। सिर्फ बातों और एक्सप्रेशन से ही दोनों का प्रेम चलता है और जिसे देखकर खुशी होती है।


ज्योत्सना एक जगह कहती है ‘सिंगर बहुत सारे हैं दुनिया में, मगर म्युजिक टीचर आप जैसा कोई नहीं है’। बेनी जुनैई को मुंबई भेजना चाहता है और ज्योत्सना अपने म्युजिक टीचर से हर शाम गाना सुनना चाहती है। बेनी उसे मुंबई भेजता और फिर इंतजार करता है उसके आने का। उसके आने में जो वक्त होता है वो वक्त कैसे कटता है ये उसकी ही कहानी है। मूवी में एक जगह डायलाॅग है ‘तुम हर छोटी बात को इतना उलझा क्यों देते हो’? ऐसी ही कुछ उलझनें बनी रहती है कहानी में। मूवी दो फेस में चलती है एक वर्तमान में और एक जिसे बेनी याद करता है। वर्तमान में बेनी बहुत संजीदा और गंभीर रहता है। जो ज्योत्सना के बारे में जिक्र तो नहीं करना चाहता। मगर न चाहते हुए भी उसका जिक्र हो ही जाता है।

बेनी की मां चाहती है कि वो नौकरी करके, शादी कर ले। मगर वो अकेला ही रहना चाहता है या फिर किसी के इंतजार में रहता है। मूवी में एक जगह दिव्या दत्ता, मानव कौल से कहती है, अकेले तो हमेशा से थे, अब खाली हो गई हूं। बेनी माधव भी वैसे ही अकेले और खाली दिखाई पड़ते हैं। बेनी हमेशा ऐसे ही रहेगा या फिर उसका इंतजार खत्म होगा। ये सब जानने के लिए आपको ये मूवी देखनी चाहिए।


लड़का जब लड़की की तारीफ करता है तो वो झिझकता है, शर्माता है, चेहरा लाल हो जाता है। ऐसे प्रेम को दिखाती है म्युजिक टीचर। लड़की जो उसके साथ पहाड़ों में ही रहना चाहती है लेकिन टीचर के कहने पर चली जाती है हमेशा के लिए दूर। प्रेम को कुछ अलग मगर बेहतरीन तरीके से दिखाती है ये मूवी। मूवी के शुरू के कुछ ही मिनटों में इस मूवी से प्यार हो जाता है। पहाड़, नदी, वादियां, झरने, गांव ये सब कुछ मन को भाने लगता है। इसके अलावा मूवी के गाने बहुत बेहतरीन हैं। मूवी के खत्म होने के बाद भी ‘रिमझिम गिरे सावन’ तो आपकी जुबां पर चढ़ा ही रहेगा। मूवी के डायलाॅग भी बहुत अच्छे हैं, कई जगह तो पंचलाइन सुन पर वाह कहने का मन करता है।

किरदार


बेनी माधव का कैरेक्टर प्ले किया है मानव कौल ने। मानव कौल ने इस मूवी में कमाल एक्टिंग की है। अपने एक्सप्रेशन और सधी बात से अपने किरदार को मजबूत किया है। बिल्कुल सधी की हुई एक्टिंग किसे कहते हैं, ये मानव कौल के इस रोल को देखकर समझा जा सकता है। इसके अलावा दूसरे लीड रोल अमृता बागची ने किया। अमृता इस मूवी में ज्योत्सना के किरदार बखूबी किया। वे इसमें बेहद प्यारी और मासूम लगती हैं। उनका किरदार भी मासूमियत दिखाता है। इसके अलावा बेनी की मां के रोल में थी नीना गुप्ता। नीना गुप्ता का किरदार सहज और सुंदर है, जिसे उन्होंने अच्छे से किया है। दिव्या दत्ता, बेनी माधव सिंह की पड़ोसी के किरदार में थीं। दिव्या दत्ता तो हर मूवी की तरह इसमें भी शानदार थी। कुल मिलाकर सबने अच्छा काम किया।


अप्रैल 2019 में नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई म्युजिक टीचर सार्थक दासगुप्ता ने डायरेक्ट किया है। ऐसी मूवी कम ही बनती हैं आपको इस मूवी को देख लेना चाहिए। ये फिल्म बताती है कि सब जिंदगी परफेक्ट नहीं होती है, कुछ न कुछ दिक्कतें बनी ही रहती हैं। इसके लिए बस हमें वही करना है जो दिव्या दत्ता मानव कौल से करने को कहती हैं।

‘कभी-कभी दिल की भी सुन लेते, हर फासला दिमाग से तय नहीं किया जाता।’

Friday, May 8, 2020

कामायाबः जिन्हें हम भूल जाते हैं उन साइड एक्टर्स की कहानी है ये

'दर्शकों के दिलों में बस हीरो बसते हैं, हमारी कोई पहचान नहीं होती।'


कामयाब मूवी का ये डायलाॅग इस मूवी की कहानी है। फिल्म इंडस्ट्री में फिल्म बनाई जाती है हीरो के लिए लेकिन उसके अलावा भी बहुत सारे किरदार हो जाते हैं। इनको हम अक्सर भूल जाते हैं। साइड एक्टर, सर्पोटिंग एक्टर या आर्टिस्ट, इन्हें यही कहा जाता है। ऐसे ही साइड एक्टरों की कहानी को बताती है ये मूवी। इसमें कुछ साइड एक्टरों ने अपना रोल खुद ही किया है।

कहानी


सुधीर जो कि इस फिल्म का नायक है और इसको निभाया है संजय मिश्रा ने। सुधीर भी एक कैरेक्ट आर्टिस्ट है जो अब बूढ़ा हो चुका है। उसकी एक बेटी है और एक पोती भी। जो उसको बहुत प्यार करतीं हैं हालांकि वो उनके साथ नहीं रहता है। एक डायलाॅग ‘एंजाॅइंग लाइफ और ऑप्शन क्या है’ की वजह से फेमस सुधीर एक स्कैंडल की वजह से कई सालों से फिल्मों में काम नहीं किया है। एक इंटरव्यू के दौरान उसे पता चलता है कि उसने 499 फिल्मों में काम किया है। बस अब वो 500वीं फिल्म के लिए फिर से एक्टिंग करना चाहता है। बस उसी फिल्म के लिए निकल पड़ता है फिर से फिल्मों की गलियों में।


उसे फिल्म लेने के लिए ऑडिशन देने पड़ते हैं और सुधीर को उसकी आदत नहीं है। ऐसी ही कई सारी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। संजय को 500वीं फिल्म दिलवाने का काम करता है, दिनेश गुलाटी। गुलाटी का कैरेक्टर प्ले किया है दीपक डोबरियाल ने। उसके बाद क्या होता है, सुधीर अपनी 500वीं मूवी कर पाता है या नहीं, ये सब जानने के लिए आपको ये मूवी देखनी होगी। फिल्म में कई जगह काॅमेडी है जो दर्शकों को बांधे रखती है। बहुत सारे इमोशनल सीन भी हैं लेकिन सबसे ज्यादा इमोशनल करता है एक सीन। जिसमें संजय बार-बार रीटेक करते हैं।

फिल्म में एक सीन है जिसमें संजय को उनकी पड़ोसी कहती है, बड़ा बेकार शहर है रिजेक्शन की आदत डलवा देता है। ये डायलाॅग उन सभी के बारे में बताता है जो फिल्म की दुनिया में जाते हैं। सभी को कहीं न कहीं रिजेक्शन तो देखना ही पड़ता है। साइड एक्टर जब रिजेक्ट होता है तो उसे क्या फील होता है, होता क्या है? ये सब इस मूवी को देखने पर पता चलता है। साइड एक्टर को सुधीर इस मूवी में आलू कहते हैं जो हर जगह चल जाता है। वो कहते हैं, ‘बच्चन हो, खान हो या कपूर, हम हर जगह फिट हो जाते थे’। फिल्म हीरो की वजह से चलती जरूर हो लेकिन उसे पूरा करते हैं ये साइड एक्टर। साइड एक्टर को कोई याद नहीं रखता है और बूढ़े होने पर कब गायब हो जाते हैं पता ही नहीं चलता। इसके बावजूद ये हमेशा हमेशा आर्टिस्ट रहेंगे। जिनको अपनी एक्टिंग पर काम मिलता है। फिल्म में एक डायलाॅग भी है, चीजें पुरानी हो जाती हैं बेकार नहीं’।

किरदार


सुधीर का किरदार निभाया है संजय मिश्रा ने। उनकी एक्टिंग ही इस मूवी को बेहद अच्छा और संजीदा बनाती है। फिल्म वो क्लाइमैक्स सीन जब वो अपनी सारी एक्टिंग लोगों को दिखा देते हैं। संजय एक ही समय में कितनी ही एक्टिंग और कितने ही एक्सप्रेसन निकाल देते हैं। संजय को सीन में देखना सुकून देता है, लगता है कुछ बहुत अच्छा देख रहे हैं।


संजय मिश्रा के अलावा दीपक डोबरियाल हैं। दीपक इस मूवी में दिनेश गुलाटी बने हैं जो कास्टिंग डायरेक्टर हैं। जिस तरह कास्टिंग डायरेक्टर होते हैं वैसे ही दीपक गुलाटी इसमें दिखाई देते हैं। उनकी एक्टिंग बेहद अच्छी थी, कहीं से भी वो कम नजर नहीं आ रहे थे।

फिल्म कितनी कामयाब रही, कितनी नहीं, सुधीर कामयाब हुए या नहीं ये तो आपको देखने पर ही पता चलेगा। मैं तो बस इतना कहूंगा कि ऐसी फिल्में कम बनती हैं आपको इसे देखना चाहिए। हार्दिक मेहता ने इस मूवी को डायरेक्ट किया है। प्रोड्यूसर हैं गौरी खान, मनीष मुन्द्रा और गौरव वर्मा। मार्च 2020 में ये मूवी रिलीज हुई थी। अभी ये मूवी आपको नेटफ्लिक्स पर मिल जाएगी। जिस तरह इस मूवी में सुधीर एक डायलाॅग की वजह से फेमस हुआ था, वैसा ही फिल्म खत्म होने पर आपके दिमाग में वो चढ़ जाएगा।

‘एंजाॅइंग लाइफ और ऑप्शन क्या है।’

Tuesday, May 5, 2020

शिकाराः कोशिश है लव स्टोरी के जरिए कश्मीर के दर्द को दिखाने की

'हम आएंगे अपने वतन और यहीं पर दिल लगाएंगे, यहीं के पानी में हमारी राख बहाई जाएगी।'


ये डायलाॅग कश्मीर पंडितों के उस दर्द को बयां करने के लिए काफी है लेकिन अगर आप यही सोचकर शिकारा मूवी देखेंगे तो थोड़ा निराश होंगे। शिकारा तो एक कश्मीरी जोड़े कह लव स्टोरी है। जिसमें कश्मीरी पंडित का विस्थापन है, कुछ-कुछ हालात दिखाए गए हैं और कुछ बाद की जिंदगी। ये सब कुछ सिमटा रहता है शांति और शिव की लव स्टोरी में। जो अपने घर जाना चाहते हैं, शिकारा।

कहानी


फिल्म शुरू होती है एक रिफ्यूजी कैंप से, जहां सब सो रहे हैं। उस सन्नाटे में एक ही आवाज आ रही है टाइपराइटार की। कुछ ही मिनटों में कहानी के दोनों किरदारों को दिखा दिया जाता है, शिव और शांति। दोनों बूढ़े हो चुकेे हैं और अमेरिका के राष्टपति से मिलने आगरा जाते हैं। वहीं से कहानी फ्लैश बैक में चली जाती है, कश्मीर। कैसे शिव और शांति मिलते हैं? उनकी शादी और कुछ किरदार जो मूवी में कुछ देर के लिए ही दिखाई देते हैं। कुछ ही मिनटों में ये सब कुछ दिखा देते हैं।


ये कहानी वैसे तो है शिव और शांति के 30 साल लंबे प्रेम की। जिसके एक-दूसरे से तो प्यार है ही, अपने घर से भी प्यार है। ‘आपको जाना होगा यहां से, कश्मीर हमारा है’, सिर ढको फरमान नहीं पढ़ा हमारा’। ऐसे ही कुछ बातों और दृश्य से उस समय के माहौल को दिखाने की कोशिश की गई है। फिर वो रात दिखाई जाती है जब घाटी में आग-आग होती है। कश्मीरी पंडितों को घरों को जलाया जाता है। उसके बाद लाखों कश्मीरी पंडित अपना घर छोड़कर जम्मू जाते हैं। ये सब कुछ बहुत जल्दी में दिखाया जाता है। थोड़ा और विस्तार से उस रात की कहानी को बताया जा सकता है।

लाखों लोग जम्मू के शरणार्थी कैंप में रहने लगते हैं। साल दर साल कैंप अच्छा हो जाता है लेकिन कश्मीर पर कोई बात ही नहीं दिखाई जाती है। न उस समय की राजनीति और आतंकवाद, यहां तक की कैंप को भी बहुत ज्यादा नहीं दिखा पाए।  फिल्म का एक-दो डायलाॅग जरूर इस बात को दिखाने की कोशिश करते हैं। मूवी में एक सीन है जिसमें शिव अपने पुराने दोस्त लतीफ से मिलता है। तब लतीफ कहता है, हम लोग एक-दूसरे को मारते रहेंगे और जिन्होंने हमारे हाथ में बंदूक पकड़ाईं, वे चुनाव जीतते रहेंगे। ये साल 21 साल, 100 साल और हजार साल ऐसे ही चलता रहेगा।


बीच-बीच में कुछ कविताएं इमोशनल और प्लस प्वाइंट के रूप में जरूर आती हैं। वो कविता तो सबको बेहद प्यारी लगेगी जब गाड़ी से शिव और शांति वापस कश्मीर आते हैं और बैकग्राउंड में एक कविता चलती-रहती है। इसके अलावा कश्मीर का लोक संगीत और कल्चर को शादी और गानों में दिखाया गया है। मुझे लगता है ये फिल्म इस लव स्टोरी के लिए याद की जाएगी। जिसमें शिव शांति के एक वायदे को पूरा करने के लिए अपने घर को बेचता है। वो जो उनका घर नहीं कश्मीर है, घर जिसे वो शिकारा कहते हैं। जब वो अपने घर को कई सालों बाद देखने जाते हैं तो वो दृश्य भावुक कर देता है।

किरदार


लीड रोल में शिव का किरदार किया है, आदिल खान ने। आदिल खान ने अच्छी एक्टिंग की है। उनके एक्सप्रेशन प्रभाव डालते है। उनको स्क्रीन पर देखना अच्छा लगता है। उससे ज्यादा अच्छा लगता है सादिया को देखना। सादिया ने इस मूवी में शांति का किरदार निभाया है। इन्होंने एक्टिंग बहुत अच्छी की है। मूवी में दोनों की जोड़ी कमाल लग रही है।


शिकारा को डायरेक्ट किया है, विधु विनोद चोपड़ा ने। आपको इसको अमेजन प्राइम पर देख सकते हैं। मूवी बहुत खराब नहीं है देखी जा सकती है लेकिन कुछ कमियों की आलोचना की जा सकती है। मूवी कुछ-कुछ बिखरी हुई-सी लगती है। ये न तो पूरी तरह से कश्मीर के उस दर्द को को बता पाती है और न पूरी तरह से लव स्टोरी है। इसमें कुछ प्रेम है, कुछ नफरत है और कुछ दर्द है अपने शिकारा तक न पहुंच पाने का। फिल्म के आखिर तक पहुंचने-से पहले एक डायलाॅग है। जो इस फिल्म का पूरा तो नहीं कुछ-कुछ मौजूं है। उस सीन में शांति शिव से कहती है,

‘‘सारी उम्र बीत गई न पता ही नहीं चला।’’

Sunday, May 3, 2020

थप्पड़ मारने से ज्यादा बुरा है उसे गलत न मानना

उसने मुझे मारा पहली बार नहीं मार सकता, एक बार भी नहीं। बस इतनी-सी बात है।


ये डायलाॅग थप्पड़ मूवी की पूरी कहानी बताता है। इस मूवी में पति अपनी पत्नी पर हाथ उठा देता है और उस औरत को कहा जाता है कि जाने दो कोई बड़ी बात नहीं है। गलती उस पुरूष की नहीं है जिसने थप्पड़ मारा। गलती है लड़की की मां की जिसने कहा कि औरतों को बर्दाश्त करना चाहिए। गलती है इस समाज की जिसने बताया कि थप्पड़ मारना मर्द का हक है। थप्पड़ की कहानी इसी हक को झुठलाने का काम करती है।

फिल्म शुरू होती है कुछ किरादारों से जो फिल्म की भूमिका बनाने का काम करते हैं। उसके बाद दिखाई देता है एक परिवार। जिसमें अमू(तापसी पन्नू) अपने पति विक्रम और अपनी सास के साथ रहती है। अमू हाउसवाइफ और उसका पति विक्रम बड़ी-सी कंपनी में काम करता है। जिसे ऑफिस से लंदन भेजा जा रहा है। पति के इस सपने को अमू अपना मानकर बहुत खुश होती है। लंदन जाने की खुशी में पार्टी होती है और उसी पार्टी में विक्रम अमू को थप्पड़ मार देता है। अमू हर रोज की तरह अगले दिन घर के सारे काम करती है। मगर अब उसके चेहरे से हंसी गायब हो गई थी और एक टीस आ गई थी।


विक्रम उस थप्पड़ के लिए न ही माफी मंगाता है और न ही उसे वो अपनी गलती लगती है। वो तब भी अपनी ही परेशानी बताता रहता है। फिल्म में एक जगह विक्रम अमू से कहता है ‘जिस कंपनी के लिए आप सब कुछ दो। जब पता चले कि वहां आपकी वैल्यू ही नहीं है तो वहां कैसा लगता है?’ विक्रम बोल ये अपने लिए रहा था और अमू को वैसा ही इस घर के लिए महसूस हो रहा था। कुछ दिनों तक वही मायूसी से सब कुछ चलता रहता है। फिर एक दिन अचानक अम्मू पति का घर छोड़कर पिता के घर आ जाती है।

आखिर ये हुआ ही क्यों?


फिल्म में एक सीन है जब विक्रम अपने ससुर से बात कर रहा होता है। तब वो कहते हैं ‘सवाल ये नहीं है कि अब क्या, उससे बड़ा सवाल ये हुआ ही क्यों?’ अनुभव सिन्हा की ये फिल्म उन छोटी-छोटी बातों को बताती है जिनको हम सब बहुत सामान्य मानते हैं। वो थप्पड़ सिर्फ एक थप्पड़ नहीं था। उस थप्पड़ से गिरा था उस औरत का सम्मान, उस थप्पड़ ने छीनी थी औरत की खुशी। इस एक थप्पड़ के बहाने अनुभव और भी बहुत सारी कहानियों को साथ-साथ दिखाते हैं। एक औरत जो अमू के घर काम करती है, एक औरत जो उसकी मां है, एक औरत जो उसकी सास हैं। सब कहीं न कहीं किसी न किसी लेवल पर अपनी खुशी को छोड़कर फैमिली की खुशी का ध्यान रखती हैं। कुछ अपने रिश्ते को बचाने के लिए चुप रहती हैं। हम अपने आसपास देखें तो ये सब कुछ हमारे आसपास हो रहा है। मूवी में एक जगह तापसी पन्नू कहती हैं, मुझे खुशी और सम्मान चाहिए। शायद इस समाज ने सोचा ही नहीं कि पत्नी की भी अपनी इच्छाएं और खुशियां हो सकती हैं।


हमारे समाज में जब पत्नी के साथ कुछ गलत होता है तो आसपास की महिलाएं ही उसे कदम बढ़ाने से रोकती हैं। इस मूवी में भी अमू को उसकी मां और सास भी रिश्ता बचाने को कहती हैं। फिल्म में ये बेहद संजीदगी से बताया कि महिलाएं अपने परिवेश और परंपरावादी सीख की वजह से उस रिश्ते को ढोती हैं। फिल्म आगे बढ़ती है तो कुछ कानूनी पेंच आते हैं। तलाक और बच्चे की कस्टडी पर दांव लगता है। अपने को सही साबित करने के लिए एक-दूसरे पर झूठे आरोप लगते हैं। फिर अनुभव सिन्हा की हर फिल्म की तरह ही इसमें भी एक मोनोलाॅग होता है।

तापसी इस मोनोलाॅग में उस थप्पड़ और सबकी चुप्पी पर सवाल उठाती हैं। वो पूछती है कि आखिर क्यों किसी ने विक्रम को नहीं कहा कि उसकी गलती है? ऐसी ही बहुत सारे सवाल उठाती हैं ये फिल्म। फिल्म खत्म होती है एक अच्छे अंत से। बाकी महिलाएं जो चुप थी और सह रही थी वो अपने आपको घुटन से बाहर निकाल फेंकती है। इसके अलावा बाप-बेटी का रिश्ता बेहद अच्छे तरीके से दिखाया है। पिता को बेटी के लिए कैसा होना चाहिए, उसको पैमाना भी बनाती है ये मूवी।

किरदार


तापसी पन्नू ने अपने संजीदगी और गंभीरता से इस कहानी को बेहद सफल बनाया। उनके अलावा मूवी में उनके पति का किरदार निभाया है पैवल गुलाटी ने। पिता बने हैं कुमुद मिश्रा जो जिन्होंने लाजवाब काम किया है। इसके अलावा रत्ना पाठक और तन्वी आजमी भी है। दिया मिर्जा और मानव कौल थोड़ी-थोड़ी देर के लिए स्क्रीन पर नजर आते हैं।



मुझे लगता है कि ये एक बेहद सफल फिल्म है जो खत्म होने के बाद भी आपके दिमाग में चलती रहती है। ये फिल्म बेहद जरूरी है जिसे हर किसी को देखनी चाहिए। ताकि वो समझ सके कि थप्पड़ मारना किसी का हक नहीं बल्कि अपराध है।

शकुंतला देवी किसी गणितज्ञ से ज्यादा मां-बेटी के रिश्ते की कहानी लगती है

तुम्हें क्यों लगता है औरत को किसी आदमी की जरूरत है। एक लड़की जो खेलते-खेलते गणित के मुश्किल सवाल को झटपट हल कर देती है। जो कभी स्कूल नहीं गई ...